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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २७७
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भावार्थ — सम्यग्दृष्टी पुरुषकै मिथ्यात्व अर अनंतानुबंधीकषायका तौ सर्वथा अभावही है अन्य कषायका यथासंभव अभाव है, तहां मिथ्यात्व अनंतानुबंधी के अभावतैं ऐसा भाव होय है । जो परद्रव्यमात्रका तौ कर्त्तापणांकी बुद्धि नांही है अर अब शेष कषायके उदय कछू राग द्वेष प्रवर्तें है तिनि कर्मके उदयके निमित्ततैं भये जाने है तातैं तिनिविषै भी कर्त्तापणांकी बुद्धि नांही है तथापि तिनि भावनिकूं रोगवत् भये जांणि भले न जाणै है; ऐसे भाव करि कषाय विषयनितैं प्रीति बुद्धि नांही तातैं तिनितैं न लिपै है, जलकमलवत् निर्लेप रहै है । यातें आगामी कर्मका बंध न होय है संसारकी वृद्धि नांही होय है, ऐसा आशय जाननां ॥ १५४ ॥
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आगें आचार्य कहै है जो जे पूर्वोक्त भावकरि सहित सम्यग्दृष्टी सत्पुरुष हैं ते ही सकल शील संयमादि गुणनिकरि संयुक्त हैं, अन्य नांही;
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गाथा - ते वि य भणामिहं जे सयलकलासीलसंजमगुणेहिं । बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तोण सावयसमो सो ॥ संस्कृत - तान् अपि च भणामि ये सकलकलाशीलसंयमगुणैः । बहुदोषाणामावासः सुमलिनचित्तः न श्रावकसमः सः ॥ अर्थ — पूर्वोक्त भावकरि सहित सम्यग्दृष्टी पुरुष हैं अर शील संयम गुणनिकरि सकल कला कहिये संपूर्ण कलावान होय हैं, तिनिहीकूं हम मुनि कहैं हैं । बहुरि जो सम्यग्दृष्टी नांही है मलिनचित्तकार सहित मिथ्यादृष्टी है अर बहुत दोषनिका आवास है ठिकाणां है सो तौ भेष धारे है तौऊ श्रावकसमानभी नांही है |
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भावार्थ—जो सम्यग्दृष्टी है अर शील कहिये उत्तर गुण अर संयम कहिये मूलगुण तिनिकरि सहित है सो मुनि है । अर जो मिथ्यादृष्टी