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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका । १०७
संस्कृत — प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मलसुविशुद्धभावसंयुक्ताः । भवंति शिवालयवासिनः त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः ॥
अर्थ — जे पुरुष इस जिनभाषित ज्ञानरूप जलकूं पाय करि अपनां निर्मल भलै प्रकार विशुद्धभावकरि संयुक्त होय हैं ते पुरुष तीन भुवनके चूडामणि अर शिव कहिये मुक्ति सोही भया आलय कहिये मंदिर तामैं बसनेवाले ऐसे सिद्ध परमेष्ठी होय हैं ।
भावार्थ — जैसैं जलतैं स्नानकारी शुद्ध होय उत्तम पुरुष महल मैं निवास करैं हैं तैसैं यह ज्ञान है सो जलवत है अर आत्माकै रागादिक मैल लगनैं तैं मलिनता होय है सो इस ज्ञानरूप जलतैं रागादिक मल धोय जे अपनें आत्माकूं शुद्ध करें हैं ते मुक्तिरूप महलमैं वसि आनंद भोग हैं, तिनिकूं तीन भुवनके शिरोमणि सिद्ध कहिये हैं ॥ ४१ ॥
आगे कहै हैं जे ज्ञानगुणकरि रहित हैं ते इष्ट वस्तु न पावैं तातैं गुण दोष जाननें ज्ञानकूं भलैप्रकार जानन:
माथा - गाणगुणेहिं विहीणा ण लहंते ते सुइच्छियं लाहं । इय णाऊं गुणदोसं तं सण्णाणं वियाहि ॥ ४२ ॥ संस्कृत -- ज्ञानगुणैः विहीना न लभंते ते स्विष्टं लाभं ।
इति ज्ञात्वा गुणदोषौ तत् सदज्ञानं विजानीहि ४२ ॥ अर्थ – ज्ञानगुणकर हीन जे पुरुष हैं ते अपनां इच्छित वस्तुका लाभकूं नांही पावैं हैं ऐसा जानिकार हे भव्य ! तू पूर्वोक्त सम्यग्ज्ञान हैं ताहि गुण दोष जाननेकूं जानि ॥
भावार्थ -- ज्ञान विना गुण दोषका ज्ञान नांही होय तब अपने इष्टवस्तु तथा अनिष्टकं नांही जानैं तब इष्ट वतुस्का लाभ न होय तातैं सम्यग्ज्ञानही करि गुण दोष जाण्या जाय हैं यातें गुण दोष जाननेकू