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१२६ पंडित जयचंद्रजी छावडा विरचितहै तातै जिनागम अनुसार सत्यार्थ ज्ञानीनिका विनयकरि ज्ञानका साधन करनां ।। २३ ॥
ऐसें ज्ञानका निरूपण किया।
आगें देवका स्वरूप करे है;गाथा—सो देवो जो अत्थं धम्म कामं सुदेइ णाणं च ।
सो देइ जस्स अत्थि हु अत्थो धम्मो य पव्वजा ॥२४ संस्कृत-सः देवः यः अर्थ धर्म कामं सुददाति ज्ञानं च ।
सः ददाति यस्य अस्ति तु अर्थः कर्म च प्रवज्या॥२४॥ अर्थ—देव जानूं कहिये जो अर्थ कहिये धन अर धर्म अर काम कहिये इच्छाका विषय ऐसा भोग बहुरि मोक्षका कारण ज्ञान इनि च्यारिनिकू देवै । तहां यह न्याय है जो वाकै वस्तु होय सो देवै अर जाकै जो वस्तु न होय सो कैसैं दे, इस न्यायकरि अर्थ धर्म स्वर्गादिके भोग अर मोक्षका सुखका कारण जो प्रव्रज्या कहिये दीक्षा जाकै होय सो देव जाननां ॥ २४ ॥
आधर्मादिका स्वरूप कहै है जिनिके जाने देवादिका स्वरूप जान्या जाय;गाथा-धम्मो दयाबिसुद्धो पयज्जा सव्वसंगपरिचत्ता ।
देवो ववगयमोहो उदययरो भव्वजीवाणं ॥ २५ ॥ संस्कृत-धर्मः दयाविशुद्धः प्रव्रज्या सर्वसंगपरित्यक्ता। .
देवः व्यपगतमोहः उदयकरः भव्यजीवानाम् ॥२५ अर्थ-धर्म है सो तौ दयाकार विशुद्ध है, बहुरि प्रव्रज्या है सो सर्व परिग्रह रहित है, बहुरि देव है सो नष्ट भया है मोह जाका ऐसा . ह सो भव्य जीवनिकै उदयका करनेवाला है ॥