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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
हैं, यह शीलका माहात्म्य है । ऐसा शील जिनवचनतैं पाइये है जिना - गमका निरन्तर अभ्यास करनां यह उत्तम है ॥ ३८ ॥
आगैं अंतसमयमैं सल्लेखना कही है तहां दर्शन ज्ञान चारित्र तप इनि च्यारि आराधनाका उपदेश है सो ये शील हीतैं प्रगट होय हैं, ताकूं प्रगटकर कहैं हैं ;
गाथा - सव्वगुणखीणकम्मा सुहदुक्खविवज्जिदा मणविसुद्धा । पफोडियकम्मरया हवंति आराहणा पयडा ।। ३९ ॥ संस्कृत - सर्वगुणक्षीणकर्माणः सुखदुःखविवर्जिताः मनोविशुद्धाः प्रस्फोटितकर्मरजसः भवंति आराधनाः प्रकटाः ॥ ३९ ॥ अर्थ – सर्व गुण जे मूलगुण उत्तरगुण तिनिकरि क्षीण भये हैं कर्म जामैं, बहुरि सुख दुःखकरि विवर्जित हैं, बहुरि मन है विशुद्ध जामैं, बहुरि उडाये हैं कर्मरूप राज जानैं ऐसी आराधना प्रगट होय है ॥
भावार्थ — पहलै तौ सम्यग्दर्शनसहित मूलगुण उत्तरगुणनिकरि कर्मनिकी निर्जरा होनेंतें कर्मकी स्थिति अनुभाग क्षीण होय है, पीछे विषयनिकै द्वारै किछु सुख दुःख होय था ताकरि रहित होय है, पीछें ध्यानविषै तिष्ठि श्रेणी चढै तब उपयोग विशुद्ध होय कषायनिका उदय अव्यक्त होय तब दुःख सुखकी वेदना मिटै, बहुरि पीछें मन विशुद्ध होय क्षयोपशम ज्ञानकै द्वारे किछू ज्ञेयतैं ज्ञेयान्तर होनेंका विकल्प होय है सो मिटिर एकत्ववितर्क अविचारनामा शुक्लध्यान बार मां गुणस्थानकै अंत होय है यह मनका विकल्प मिटि विशुद्ध होनां है, बहुरि पी हैं घातिकर्मका नाश होय अनंत चतुष्टय प्रकट होय है यह कर्मरजका उडना है; ऐसैं आराधनाकी संपूर्णता प्रकट होनां है । जे चरम शरीरी हैं तनिकै तौ ऐसें आराधना प्रकट होय मुक्तिकी प्राप्ति होय है । बहुरि अन्यकै आराधनाका एकदेश होय अंत मैं तिसकूं आराधानकरि स्वर्गविषै
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