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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
भावार्थ — लिंग धारण करि ऐसे कार्य करै तौ सो नरक पावहीं या संशय नांही ॥ १० ॥
आर्गै क है है जो लिंग धारि लिंगयोग्य कार्य करता दुःखी रहै है तिनि कार्यनिका आदर नांही करे हैं, सो भी नरकमैं जाय है; - गाथा — दंसणणाणचरिते तवसंजमणियमणिच्चकम्मम्मि |
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पीडयदि वट्टमाणो पावदि लिंगी णरयवासं ॥ ११ ॥ संस्कृत - दर्शनज्ञानचारित्रेषु तपः संयमनियमनित्यकर्मसु । पीड्यते वर्त्तमानः प्राप्नोति लिंगी नरकवासम् ११ अर्थ — जो लिंगधारणकार इनि क्रियानिवि करता वाध्यमान होय पीडा पावै है दुःखी होय है सो लिंगी नरकवासकूं पावें है । ते क्रिया कहा ? प्रथम तौ दर्शन ज्ञान चारित्र तिनिविषै इनिका निश्चय व्यवहाररूप धारण करना, बहुरि तप अनशनादिक बारह प्रकार तिनिका शक्तिसारू करनां, बहुरि संयम - इंद्रिय मनका वशि करनां जीवनिकी रक्षा करनी, नियम कहिये नित्य किछू त्याग करनां, बहुरि नित्यकर्म कहिये आवश्यक आदि क्रियाका कालकी काल नित्य करनां; ये लिंग कै योग्य क्रिया हैं; इनि क्रियानिविषै करता दुःखी होय है, सो नरक पांव है ॥
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भावार्थ — लिंगधारणकर ये कार्य करने थे तिनिका तौ निरादर करे अर प्रमाद सेवै, लिंगकै योग्य कार्य करता दुःखी होय, तत्र जानिये - याकै भावशुद्धिपूर्वक लिंगग्रहण नांही भया । अर भाव बिगडै ताका फल तौ नरकही होय, ऐसैं जाननां ॥ ११ ॥
आ कहै है जो भोजनविषै भी रसनिका लोलुपी होय सो भी लिंगकूं लजावै है;
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