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२८० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
आर्गे फेरि तिनि मुनिनिका सामर्थ्य• कहै है, गाथा-मोहमयगारवेहि य मुक्का जे करुणभावसंजुत्ता ।
ते सव्वदुरियखंभं हणंति चारित्तखग्गेण ॥१५९॥ संस्कृत-मोहमदगारवैः च मुक्ताः वे करुणाभावसंयुक्ताः ।
ते सर्वदुरितस्तंभ घ्नंति चारित्रखङ्गेन ॥१५९॥ अर्थ-जे मुनि मोह मद गौरव इनिकरि रहित हैं अर करुणा भावकरि सहित है चारित्ररूपी खङ्गकरि पापरूपी स्तंभ है ताहि हणे हैं, मूलतें का है॥
भावार्थ-मोह तौ परद्रव्यसूं ममत्व भाव सो कहिये, मद जात्यादिक परद्रव्यादिक संबंधौं गर्व होय ताकू कहिये गौरव तीन प्रकार है-ऋद्धिगौरव अर सातगौरव अर रसगौरव, तहां ऋद्धिगौरव जो कछू तपोवलकरि अपनी महंतता लोकमैं होय ताका आपका मद आवै तामैं हर्ष मानें, बहुरि सातगौरव जो अपने शरीरमैं रोगादिक न उपजै तब सुख मार्ने प्रमादयुक्त होय अपनां महंतपणां मानें, बहुरि रसगौरव जो मिष्ट पुष्ट रसीला आहारादिक मिलै ताके निमित्त” प्रमत्त होय शयनादिक करै । ऐसा गौरव इनिकरि तो रहित हैं अर परजीवनिकी करुणाकरि युक्त हैं-ऐसा नांही जो परजीवनूं मोहममत्त्व नाही है यातें निर्दय होय तिनिकू हौँ, जे राग अंश रहै तेते परजीवनिकी करुणाही करै उपकारबुद्धि रहै । ऐसे ज्ञानीमुनि पाप जो अशुभकर्म ताकू चारित्रके बल” नाश करें हैं ॥ १५९ ॥
आरौं कहै है जो-ऐसे मूलगुण अर उत्तरगुणानकरि मंडित मुनि हैं ते जिनमतमैं शोभै हैं;