Book Title: Ashtpahud
Author(s): Jaychandra Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 418
________________ अष्टपाहुडमें लिंगपाहुडकी भाषावचनिका । ३७५ गाथा-कंदप्पाइय बट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं । मायी लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण समणो ॥१२॥ संस्कृत-कंदादिषु वर्तते कुर्वाणः भोजनेषु रसगृद्धिम् । मायावी लिंगव्यवायी तियग्योनिः न सः श्रमणः १२ अर्थ-जो लिंग धारि करि भोजनविर्षे भी रसकी गृद्धि कहिये अति आसक्तता ताहि करता वर्ते है सो कंदर्प आदिकवि व” है, कामसेवनकी वांछा तथा प्रमाद निद्रादिक जाकै प्रचुर बढे है तब 'लिंगव्यवायी' कहिये व्यभिचारी होय है, मायावी कहिये कामसेवनकै आर्थि अनेक छल करनां विचारै है; जो ऐसा होय है सो तिर्यंचयोनि है पशुतुल्य है मनुष्य नाही याहीतैं श्रमण नाही ॥ भावार्थ-गृहस्थचारा छोडि आहारविर्षे लोलुपता करने लग्या तौ गृहस्थचारामैं अनेक रसीले भोजन मिलें थे, काहेकू छोड़े, ताः जानिये है जो आत्मभावनाका रसकू पहचान्या नांही तातै विषयसुखकी ही चाहि रही तब भोजनके रसकी लारके अन्य भी विषयनिकी चाहि होय तब व्यभिचार आदिमैं प्रवर्ति करि लिंगकू लजावै; ऐसे लिंग” तौ गृहस्थचाराही श्रेष्ठ है, ऐसैं जाननां ॥१२॥ __ आगै फेरि याहीका विशेष कहै है;गाथा-धावदि पिंडणिमित्तं कलहं काऊण भुंजदे पिंडं । अवरुपरूई संतो जिणमग्गि ण होइ सो समणो॥१३॥ संस्कृत-धावति पिंडनिमित्तं कलहं कृत्वा भुक्ते पिंडम् । अपरप्ररूपी सन् जिनमार्गी न भवति सः श्रमणः १३ अर्थ--जो लिंगधारी पिंड जो आहार ताकै निमित्त दोडै है, बहुरि आहारकै निमित्त कलह करि आहारकू भुंजै है खाय है, बहुरि ताकै निमित्त अन्यतैं परस्पर ईर्षा करै है सो श्रमण जिनमार्गी नांही है ॥

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