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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २३९ आरौं भावलिंग शुद्धकरि द्रव्यलिंग सेवनेका उपदेश करै है,-- गाथा-सेवहि चउविहलिंगं अभंतलिंगसुद्धिमावण्णो ।
बाहिरलिंगमकजं होइ फुडं भावरहियाणं ॥१११॥ संस्कृत-सेवस्व चतुर्विधलिंग अभ्यंतरलिंगशुद्धिमापनः ।
बाह्यलिंगमकार्य भवति स्फुटं भावरहितानाम् ॥१११ अर्थ--हे मुनिवर ! तू अभ्यंतरलिंगकी शुद्धि कहिये शुद्धताकू प्राप्त भया संता च्यार प्रकार बाह्यलिंग है ताहि सेवन करि जाते जे भावरहित हैं तिनिकै प्रगटपणे बाह्यलिंग अकार्य है, कार्यकारी नांही है ॥ __ भावार्थ-जे भावकी शुद्धताकरि रहित हैं अपनी आत्माका यथार्थ श्रद्धान ज्ञान आचरण जिनकै नांही तिनिकै बाह्यलिंग कछू कार्यकारी मांही है, कारण पाय तत्काल विगडे है, तातै थह उपदेश है-पहलैं भावकी शुद्धताकरि द्रव्यलिंग धारणां । सो यह द्रव्यालिंग च्यारि प्रकार कह्या, ताकी सूचना ऐसी जो-मस्तकका, डाढीका, मूंछका, केशांका तौ लौच करनां तीन चिह्न तौ ये अर चौथा नीचले केश राखनां, अथवा वस्त्रका त्याग, केशनिका लौंच करना, शरीरका स्नानादिककरि संस्कार न करना, प्रतिलेखन मयूरपिच्छका राखनां, ऐसैंभी च्यार प्रकार बाह्यलिंग कया है। ऐसैं सर्व बाह्य वस्त्रादिककरि रहित नग्न रहनां, ऐसा नग्नरूप भावविशुद्धिविना हास्यका ठिकाना है अर कछू उत्तम फलभी नाही है ॥ १११ ॥ ___ आगँ कहै है जो-भाव विगडनेंके कारण. च्यार संज्ञा हैं तिनिकरि संसार भ्रमण होय है, यह दिखावै है;गाथा-आहारभयपरिग्गहमेहुणसण्णाहि मोहिओसि तुमं ।
भमिओ संसारवणे अणाइकालं अणप्पवसो ॥११२॥