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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
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उपशमादिक होते जीवके परिणाम भी सम्यक्त्वरूप होय ते भी अतिसूक्ष्म हैं ते भी केवलज्ञानगम्य हैं । तथापि किछू छद्मस्थके ज्ञानमैं आवनें योग्य जीवका परिणाम होय हैं ते ताके जनावनेंके बाह्यचिह्न हैं तिनिकी परीक्षाकरि निश्चय करनेका व्यवहार है, ऐसैं नहीं होय तौ छद्मस्थ व्यवहारी जीवकै सम्यक्त्वका निश्चय नहीं होय तब आस्तिक्यका अभाव ठहरै, व्यवहारका लोप होय यह बडा दोष आवै । तातें बाह्य चिह्ननिका आगम अनुमान स्वानुभवतें परीक्षाकरि निश्चय करनां ।
ते चिह्न कौन, सो लिखिये है;-तहां मुख्य चिह्नतो यह है जो उपाधिरहित शुद्ध ज्ञान चेतनास्वरूप आत्माकी अनुभूति है सो यद्यीप यह अनुभूति ज्ञानका विशेष है तथापि सम्यक्त्व भये यह होय है तातें याकू बाह्यचिह्न कहिए है । ज्ञान है सो आपका आपकैं स्वसंवेदनरूप है ताका रागादि विकाररहित शुद्ध ज्ञानमात्रका आपकै आस्वाद होय " जो यह शुद्धज्ञान है सो मैं हूं अर ज्ञानमैं रागादि विकार हैं ते कर्मके निमित्तौं उपजै हैं ते मेरा रूप नाही हैं। ऐसैं भेदज्ञान करि ज्ञानमात्रका आस्वादकू ज्ञानकी अनुभूति कहिये यह ही आत्मा अनुभूति है शुद्धनयका यहही विषय है । ऐसी अनुभूतिौं शुद्धनयकै द्वारै ऐसा भी श्रद्धान होय है जो सर्व कर्मजनित रागादिक भावतें रहित अनंत चतुष्टय मेरा रूप है, अन्य भाव सर्व संयोग जनित हैं, ऐसी आत्माकी अनुभूति सो सम्यक्त्वका मुख्यचिह्न है । यह मिथ्यात्व अनंतानुबंधीका अभावकरि सम्यक्त्व होय ताका चिह्न है, सो चिह्नकू ही सम्यक्त्व कहनां यह व्यवहार है । बहुरि याकी परीक्षा सर्वज्ञके आगमकरि तथा अनुमानकरि तथा स्वानुभव प्रत्यक्षकरि इनि प्रमाणनिकरि कीजिये है । बहुरि याही• निश्चय तत्वार्थश्रद्धान भी कहिए है । तहां आपकैं तो आपका स्वसंवेदनकू प्रधानकार होय है, अर परकै परकी