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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितकरि पुण्य उपजाय स्वर्ग जाय तौहू तहां चय करि कोट्यां भव लेय संसारहीमैं रहै है, ऐसैं जिनागममैं कह्या है।
भावार्थ--श्वेतांबरादिक ऐसैं कहैं हैं-जो गृहस्थ आदि वस्त्रसहित हैं तिनिकै भी मोक्ष होय है ऐसैं सूत्रमैं कह्या है ताका इस गाथामैं निषेधका आशय है-जो हरिहरादिक बडी सामर्थ्यके धारक भी हैं तौऊ वस्त्रसहित तौ मोक्ष नाही पावें है । श्वेतांवरां सूत्र कल्पित बनाये हैं तिनिमैं यह लिखी है सो प्रमाणभूत नांही है, ते श्वेतांबर जिनसूत्रके अर्थ पद” च्युत भये हैं ऐसें जाननां ॥ ८॥
आगैं हैं है—जो जिनसूत्र च्युत भये हैं ते स्वच्छंद भये प्रवर्त हैं ते मिथ्यादृष्टी हैं;गाथा-उकिसीहचरियं बहुपरियम्मो य गरुय भारो य ।
जो विहरइ सच्छंदं पावं गच्छंदि होदि मिच्छत्तं ॥९॥ संस्कृत-उत्कृष्टसिंहचरितः बहुपरिकर्माच गुरुभारश्च ।
__यः विहरति स्वच्छंदं पापं गच्छति भवति मिथ्यात्वम्।।९॥ ___ अर्थ-जो मुनि होय करि उत्कृष्ट सिंहवत् निर्भय भया आचरण करै बहुरि बहुत परिकर्म कहिये तपश्चरणादिक्रियाविशेषनिकरि युक्त है बहुरि गुरुके भार कहिये बड़ा पदस्थरूप है संघ नायक कहावै है अर जिनसूत्रतै च्युत भया स्वच्छंद प्रवत्र्ते है तो वह पापहीकू प्राप्त होय है बहुरि मिथ्यात्वकू प्राप्त होय है।
भावार्थ-जो धर्मकी नायकी लेकरि निर्भय होय तपश्चरणादिक करि बडा कहाय अपनां संप्रदाय चलावै है जिनसूत्रः च्युत होय स्वेच्छाचारी प्रवत्र्ते है तो सो पापी मिथ्यादृष्टी ही है ताका प्रसंग भी श्रेष्ठ नाही ॥९॥