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अष्टपाहुडभाषा वचनिका।
४३. __ अर्थ-जे बारह प्रकार तप करि संयुक्त भये संते विधिके बल करि अपने कर्म• क्षिपाय करि 'वोसट्टचत्तदेहा' कहिये न्यारा करि. छोड्या है देह ज्यां ऐसे भये ते अनुत्तर कहिये जाते परै अन्य अवस्था नांही ऐसी निर्वाण अवस्थाकू प्राप्त होय हैं ।
भावार्थ-जे तपकरि केवलज्ञान उपाय जेरौं विहार करें तेरौं अव-. स्थान रहैं पीछै द्रव्य क्षेत्रकाल भावकी सामग्रीरूप विधिके बलकरि कर्म क्षिपाय व्युत्सर्गकरि देहकू छोड़ि निर्वाणकू प्राप्त होय हैं । इहां आशय ऐसा जो निर्वाणकू प्राप्त होय तब लोककै शिखर जाय तिष्ठै है तहां गमनविर्षे एक समय लागै तिस काल जंगम प्रतिमा कहिये । ऐसैं सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकरि मोक्षकी प्राप्ति होय है तहां सम्यग्दर्शन प्रधान है। इस पाहुडमैं सम्यग्दर्शनका प्रधानपणांका व्याख्यान किया ॥३६॥
सवैया छंद। मोक्ष उपाय कह्यो जिनराज जु सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्रा। तामधि सम्यग्दर्शन मुख्य भये निज बोध फलै सुचरित्रा।
जे नर आगम जानि करै पहचानि यथावत मित्रा । घाति क्षिपाय रु केवल पाय अघाति हने लहि मोक्ष पवित्रा ॥१॥
दोहा। नमूं देव गुरु धर्मकू जिन आगमकू मानि ।
जा प्रसाद पायो अमल सम्यग्दर्शन जानि ॥२॥ इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामि विरचित अष्टप्राभृतमें प्रथम दर्शनप्राभृत. और तिसकी जयचन्द्र छावड़ाकृतदेशभाषामयवचनिका
समाप्त ॥१॥