Book Title: Ashtpahud
Author(s): Jaychandra Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 452
________________ अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका । ४०९ ___ भावार्थ-ज्ञान कहिये पदार्थनिकू विशेषकरि जाननां, ध्यान कहिये स्वरूपविर्षे एकाग्र चित्त होना, योग कहिये समाधि लगावनां, सम्यग्दर्शनकू निरतिचार शुद्ध करनां, येतो अपनां वीर्य जो शक्ति ताकै आधीन हैं जेता बनै तेता होय अर सम्यग्दर्शनकरि बोधि जो रत्नत्रय ताकी प्राप्ति होय, याके होते विशेष ध्यानादिक भी यथा शक्ति होयही है अर शक्ति भी यात वधै है। ऐसैं कहनेमैं भी शीलहीका माहात्म्य जाननां, रत्नत्रय है सो ही आत्माका स्वभाव है ताकू शीलभी कहिये ॥ ३७॥ ___ आगैं कहै है जो यह प्राप्ति जिनवचन होय है;गाथा--जिणवयणगहिदसारा विसयविरत्ता तपोधणा धीरा । सीलसलिलेण ण्हादा ते सिद्धालयसुहं जति ॥३८॥ संस्कृत-जिनवचनगृहीतसारा विषयविरक्ताः तपोधनाधीराः। शीलसलिलेन स्नाताः ते सिद्धालयसुखं यांति ॥३८॥ अर्थ-जिनवचनकरि ग्रहण किया है सार जिनि. बहुरि विषयनितें विरक्त भये हैं, बहुरि तपही है धन जिनिकै, बहुरि धीर हैं ऐसे भये संते मुनि शीलरूप जलकरि न्हायें शुद्ध भये ते सिद्धालय जो सिद्धनिके वसनेका मन्दिर ताके सुखनिकू पाएँ हैं ॥ ___ भावार्थ-जे जिनवचनकरि वस्तुका यथार्थ स्वरूप जानि ताका सार जो अपनां शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति ताका ग्रहण करें हैं ते इंद्रियनिके विषयनितें विरक्त होय तप अंगीकार करें हैं मुनि होय हैं, तहां धीरवीर होय परीषह उपसर्ग आये चिरौं नाही तब शील जो स्वरूपकी प्राप्तिकी पूर्णतारूप चौरासी लाख उत्तरगुणकी पूर्णता सो ही भया निर्मल जल ताकरि स्नान करि सर्व कर्ममलकू धोय सिद्ध भये, सो मोक्षमंदिरविर्षे तिष्ठि करि तहां परमानंद अविनाशी अतीन्द्रिय अव्याबाध सुखकू भोगबैं

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