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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २०१ ___ भावार्थ-आत्माकै कर्मप्रकृतिका नाशकार निर्जरा तथा मोक्ष होनां कार्य है, सो यह कार्य द्रव्यलिंग ही करि तौ नाही होय है, भावसहित द्रव्यलिंग भये कर्मकी निर्जरा नामा कार्य होय है, केवल द्रव्यलिंगकरि तौ न होय है; तातैं भावसहित द्रव्यलिंग धारणां यह उपदेश है ॥ ५४ ॥ __ आगैं याही अर्थकू दृढ़ करै है;गाथा—णग्गत्तणं अकजं भावणरहियं जिणेहिं पण्णत्तं ।
इय णाऊण य णिचं भाविजहि अप्पयं धीर ॥५५॥ संस्कृत-नग्नत्वं अकार्य भावरहितं जिनैः प्रज्ञप्तम् ।
इति ज्ञात्वा नित्यं भावयेः आत्मानं धीर ! ॥५५॥ अर्थ-भावरहित नग्नपणां है. सो अकार्य है कछू कार्यकरी नाही यह जिनभगवाननैं कह्या है, ऐसें जानिकरि हे धीर ! हे धैर्यवान मुने निरन्तर नित्य आत्माही• भाय ॥
भावार्थ-आत्माकी भावनाविना केवल नग्नपणां कछू कार्य करनेवाला नाही तातै चिदानंदस्वरूप आत्माहीकी भावना निरन्तर करणी, या सहित नग्नपणां सफल है ॥ ५५ ॥ __ आगें शिष्य पूछ है जो-भावलिंगफू प्रधानकरि निरूपण किया सो भावलिंग कैसा है ? ताका समाधानकू भावलिंगका निरूपण करै है;गाथा-देहादिसंगरहिओ माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो।
अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू ॥५६॥ संस्कृत-देहादिसंगरहितः मानकषायैः सकलपरित्यक्तः।
आत्मा आत्मनि रतः स भावलिंगी भवेत् साधु॥५६॥ ___ अर्थ--भावलिंगी साधु ऐसा होय है-देह आदिक जे परिग्रह तिनितें रहित होय बहुरि मान कषायकरि रहित होय बहुरि आत्मा विर्षे लीन होय सो आत्मा भावलिंगी है ॥