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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३०९
'परमात्माका स्वरूप अनेक प्रकार अन्यथा कहै है, ताका ध्यानका भी अन्यथा उपदेश करे है, ताका निषेध है । जिनदेवनैं परमात्माका तथा ध्यानका स्वरूप कह्या सो सत्यार्थ है प्रमाणभूत है तैसेंही योगीश्वर करें हैं, तेई निर्वाणकूं पावैं हैं ॥ ३२ ॥
आगैं जिनदेव जैसें ध्यान अध्ययनकी प्रवृत्ति कही है तैसैं उपदेश करै है;
गाथा - पंचमहव्वयजुत्तो पंचसु समिदीस तीस गुत्तीसु । रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सदा कुह ॥ ३३ ॥ गाथा - पंचमहाव्रतयुक्तः पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु । रत्नत्रयसंयुक्तः ध्यानाध्ययनं सदा कुरु ॥ ३३ ॥
अर्थ - आचार्य कहे है जो पांच महाव्रतकरियुक्त भया, बहुरि पांच समिति तीन गुप्ति इनिविषै युक्त भया, बहुरि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र जो रत्नत्रय तिसकरि संयुक्त भया, हे मुनिजनहौ ? तुम ध्यान अर अध्ययन शास्त्रका अभ्यास ताहि करौ ॥
भावार्थ --- अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य परिग्रहत्याग ये तो पांच महाव्रत, अर ईर्ष्या भाषा एषणा आदाननिक्षेपणा प्रतिष्ठापनां ये पांच समिति, अर मन वचन कायका निग्रहरूप तीन गुप्ति, यहु तेरह प्रकार चारित्र जिनदेव का है तिसकरि युक्त होय, अर निश्चय व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का है इनिकरि युक्त होय करि ध्यान अर अध्ययन करवाका उपदेश है । तहां प्रधान तौ ध्यान है ही अर तिसमैं न थंमै तत्र शास्त्रका अभ्यास मैं मन लगावै यही ध्यानतुल्य है जातैं शास्त्रमैं परमात्माका स्वरूपका निर्णय है सो यह ध्यानहीका अंग है ॥ ३३॥
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आगैं कहै है जो रत्नत्रयकूं आराधै है सो जीव आराधक ही है,