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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
संस्कृत-लावण्यशीलकुशलः जन्ममहीरुहः यस्य श्रमणस्य ।
सःशीलः स महात्मा भ्रमेत् गुणविस्तारः भव्ये ॥३६॥ अर्थ-जिस मुनिका जन्मरूप वृक्ष है सो लावण्य कहिये अन्या प्रियलागै ऐसा सर्व अंग सुन्दर तथा मन वचन कायकी चेष्टा सुन्दर अर शील कहिये अंतरंग मिथ्यात्व विषयकरि रहित परोपकारी स्वभाव इनि दोऊनिविर्षे प्रवीण निपुण होय सो मुनि शीलवान् है महात्मा है ताके गुणनिका विस्तार लोकवि भ्रमै है फैले है ।
भावार्थ—ऐसे मुनिका गुण लोकमैं विस्तरै है सर्व लोककै प्रशंसा योग्य होय है इहां भी शीलहीकी महिमा जाननी, अर वृक्षका स्वरूप कह्या जैसैं वृक्षक शाखा पत्र पुष्प फल सुन्दर होय अर छायादिककरि रागद्वेष रहित सर्व लोकका समान उपकार करै तिस वृक्षकी महिमा सर्व लोक कर तैसै मुनिभी ऐसा होय सो सर्वकै महिमा करने योग्य होय है ॥ ३६॥ ___ आनें कहै है जो ऐसा होय सो जिनमार्गविर्षे रत्नत्रयकी प्राप्तिरूप
बोधि पावै है;. गाथा—णाणं झाणं जोगो देसणसुद्धीय वीरियायत्तं ।
सम्मत्तदंसणेण य लहंति जिणसासणे बोहिं ॥३७॥ संस्कृत--ज्ञानं ध्यानं योगः दर्शनशुद्धिश्च वीर्यायत्ताः।
सम्यक्त्वदर्शनेन च लभते जिनशासने बोधिं ॥३७॥ अर्थ-ज्ञान ध्यान योग दर्शनकी शुद्धता ये तो वीर्यकै आधीन हैं अर सम्यग्दर्शनकरि जिनशासनकै विर्षे बोधि• पाएँ हैं, रत्नत्रयकी प्राप्ति होय है॥
१ मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ' वीरियावत्तं' ऐसा पाठ है जिसकी छाया 'वीर्यत्वं ' है॥