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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा—णाणी सिव परमेट्टी सव्वण्हू विण्हु चउमुहो बुद्धो।
अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुक्को य होइ फुडं॥१५१॥ संस्कृत--ज्ञानी शिवः परमेष्ठी सर्वज्ञः विष्णुः चतुर्मुखः बुद्धः ।
आत्मा अपि च परमात्मा कर्मविमुक्तः च भवति स्फुटम् अर्थ-परमात्मा है सो ऐसा है-ज्ञानी है, शिव है, परमेष्ठी है, सर्वज्ञ है, विष्णु है, चतुर्मुख ब्रह्मा है, बुद्ध है, आत्मा है, परमात्मा है, कर्मकरि विमुक्त कहिये रहित है, यह प्रगट जाणों ॥
भावार्थ-ज्ञानी कहनेंतें तौ सांख्यमती ज्ञानरहित उदासीन चैतन्यरहित मान है ताका निषेध है बहुरि शिव है सर्वकल्याणपरिपूर्ण है जैसे सांख्यमती नैयायिक वैशेषिक मानै है तैसा नाही है, बहुरि परमेष्ठी है परम उत्कृष्ट पदविर्षे तिष्टै है अथवा उत्कृष्ट इष्टत्व स्वभाव है जैसे अन्य मती केई अपनां इष्ट किळू थापि ताकू परमेष्ठी कहैं हैं तैसें नाही है, बहुरि सर्वज्ञ है सर्व लोकालोककू जाणें है अन्य केई कोई एक प्रकरण संबंधी सर्व वात जाणै ताकू भी सर्वज्ञ कहै है तैसा नाही है, बहुरि विष्णु है जाकै ज्ञान सर्व ज्ञेयमैं व्यापक है-अन्यमती वेदान्ती आदि कहै हैं जो सर्व पदार्थनिमैं आप है सो ऐसैं नाही है, बहुरि चतुर्मुख कहनेंतें केवली अरहंतकै समवसरणमैं च्यार मुख च्यारूं देशामैं दोखै हैं ऐसा अतिशय हैं ताते चतुर्मुख कहिये है-अन्यमती ब्रह्माकू चतुर्मुख कहैं हैं सो ऐसा ब्रह्मा कोई है नांही, बहुरि बुद्ध है सर्वका ज्ञाता है बौद्धमती क्षणिककू बुद्ध कहैं हैं तैसा नाही है बहुरि आत्मा है अपने स्वभावही वि. निरन्तर प्रवरौं है-अन्यमती वेदन्ती सर्व विर्षे प्रवर्तता आत्माकू मानें हैं तैसा नाही है, बहुरि परमात्मा है आत्माका पूर्णरूप अनंतचतुष्टय जाकै प्रगट भया है तातै परमात्मा है बहुरि कर्मजे आत्माके स्वभावके घातक घातिकर्म तिनि” रहित भया है तातें कर्मविमुक्त है अथवा