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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
ऐसें मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करि श्रीकुन्दकुन्द आचार्यकृत प्राकृतगाथावंध पाहुडग्रंथ हैं तिनिमैंसूं केईकनिकी देशभाषामय वचनिका लिखिये है; —
तहां प्रयोजन ऐसा है जो इस हुंडावसर्पिणी काल विषै मोक्षमार्गकूं अन्यथा प्ररूपण करनहारे अनेक मत प्रवर्त्ते हैं तहां भी इस पंचमका - मैं केवली श्रुतकेबलीका व्युच्छेद होनेतैं जिनमतमैं भी जड व जीवनिके निमित्त करि परंपरामार्गकूं उल्लंघि बुद्धिकल्पित मत श्वेताम्बर आदिक भये हैं, तिनिका निराकरण करि यथार्थ स्वरूप स्थापनेकै अर्थि दिगंबर आम्नाय मूलसंघमैं आचार्य भये तिनिनैं सर्वज्ञकी परंपराका अव्युच्छेदरूप प्ररूपणा के अनेक ग्रंथ रचे हैं, तिनिमैं दिगंबर संप्रदाय मूलसंघ नंदिआम्नाय सरस्वतीं गच्छ मैं श्रीकुन्दकुन्द मुनि भये तिनि पाहुड ग्रंथ रचे तिनिकूं संस्कृतभाषा प्राभृतनाम कहिये, ते प्राकृत गाथाबंध हैं सो कालदोषतें जीवनिकी बुद्धि मंद होय है सो अर्थ समझ्या जाता नांही, तातैं देशभाषामय वचनिका होय तौ सर्व ही वांचें अर्थ समझैं श्रद्धान दृढ़ होय, यह प्रयोजन विचारि वचनिका लिखिये है, अन्य किछू ख्याति बड़ाई लाभका प्रयोजन है नांही । यातें 1 भव्यजीव ताकूं वांचि अर्थ समझि चित्तमैं धारण करि यथार्थमतका बाह्यलिंग तथा तत्वार्थका दृढ़ श्रद्धान करियो । यामैं किछु बुद्धिकी मंदता तथा प्रमादके वशर्तें अर्थ अन्यथा लिखूं तौ बड़े बुद्धिवान मूल ग्रंथ देखि शुद्धकर वांचियो, मोकूं अल्पबुद्धि जानि क्षमा कीजियो । अब इहां प्रथम ही दर्शनपाहुडकी वचनिका लिखिये है;( दोहा )
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श्रीअरहंतकं मन वच तन इकतान । मिथ्याभाव निवारि करें सुदर्शन ज्ञान ||