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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३१९ तिसकी भावनासहित जीव होय है सो मोक्ष पावै है तातें जिनमतकी मुद्रातूं जो पराङ्मुख है ताकै काहेरौं मोक्ष होय संसारहीमैं भ्रमै है। इहां रुद्रका विशेषण किया है ताका ऐसा भी आशय हैं जो रुद्र ग्यारा होय हैं ते विषय कषायनिमैं आसक्त होय जिनमुद्रातें भ्रष्ट होय हैं तिनकै मोक्ष न होय है, तिनिकी.कथा पुराणनितें जाननी ॥ ४६ ॥
आज कहै है जो--जिनमुद्रातैं मोक्ष होय है सो यहु मुद्रा जिनि जीवनिकू न रुचे है ते संसारमैं ही तिष्ठें हैं;गाथा-जिणमुदं सिद्धिसुहं हवेइ णियमेण जिणवरुद्दिट्टा ।
सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे ४७ संस्कृत-जिनमुद्रा सिद्धिसुखं भवति नियमेन जिनवरोद्दिष्टा ।
स्वप्नेऽपि न रोचते पुनः जीवाः तिष्ठति भवगहने ४७ अर्थ-जिनमुद्रा है सो ही सिद्धिसुख है मुक्तिसुखही है, यह कारणविर्षे कार्यका उपचार जाननां, निजमुद्रा मोक्षका कारण है मोक्षसुख ताका कार्य है कैसी है जिनमुद्रा-जिन भगवाननैं जैसी कही है तैसीही है। तहां ऐसी जिनमुद्रा जो जीवकू साक्षात् तो दूरिही रहो स्वप्नविभी कदाचित् भी न रुचै है ताका स्वप्ना आवै है तौहू अवज्ञा आवै है तो सो जीव संसाररूप गहन वनविषै तिष्ठै है मोक्षके सुखकू नाही पावै है ॥
भावार्थ-जिनदेवभाषित जिनमुद्रा मोक्षका कारण है सो मोक्षरूप ही है जांतें जिनमुद्राके धारक वर्तमानमैंभी स्वाधीन सुखकू भोग हैं अर पीछे मोक्षके सुख पावै है । अर जा जीवकू यह न रुचै है सो मोक्ष नाही पावै हैं संसारहीमैं रहैं हैं ।। ४७ ॥ ___ आगैं कहै हैं जो परमात्माकू ध्यावै हैं सो योगी लोभरहित होय नवीन कर्मका आस्रव नाही करें हैं;--