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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
है, इष्टविषै राग भया तब अनिष्ट वस्तुविषै द्वेषभाव होयही; ऐसें जो राग द्वेष करै है सो तिस कारणकार रागी द्वेषी अज्ञानी है, बहुरि यातें विपरीत कहिये उलटा है परद्रव्यविषै राग द्वेष नांही करे है सो ज्ञानी है ॥
भावार्थ- ज्ञानी सम्यग्दृष्टी मुनिकै परद्रव्यविषै रागद्वेष नांही है जातें राग जाकूं कहिये जो — परद्रव्यकूं सर्वथा इष्ट मांनि राग करै तैसेही अनिष्ट मांनि द्वेष करै, सो सम्यग्ज्ञानी परद्रव्यकूं इष्ट अनिष्ट कल्पै नांही तब काहेकूं राग द्वेष होय, चारित्रमोहके उदयतें कछू धर्मराग होय ताकूं भी रोग जांणि भला न जाणें तब अन्यसूं कैसें राग होय, परद्रव्यसूं राग द्वेष करै सो तौ अज्ञानी है; ऐसें जाननां ॥ ५४ ॥
आगे कहै है जो जैसें परद्रव्यकै विषै रागभाव होय है तैसें मोक्षकै निमित्तभी राग होय तौ सो भी राग आस्रवका कारण है, सो भी ज्ञानी न करै; -
गाथा - आसवहेदूय तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि । सोते हु अण्णाणी आदसहावा हु विवरीओ ॥ ५५॥ संस्कृत - आस्रवहेतुश्च तथा भावः भोक्षस्य कारणं भवति ।
सः तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावातु विपरीतः || ५५॥ अर्थ—जैसैं परद्रव्यविषै राग कर्मबंधका कारण पूर्वै कह्या तैसाही राग भाव जो मोक्षनिमित्तभी होय तौ आस्रवहीका कारण है कर्मका बंधही करै है तिस कारण करि जो मोक्षकूं परद्रव्यकी ज्यों इष्ट मानि तैसैंही रागभाव करै तौ सो जीव मुनिभी अज्ञानी है जातैं कैसा है सो आत्मस्वभाव विपरीत है, आत्मस्वभावकूं जान्यां नांही ॥
भावार्थ — मोक्ष तौ सर्व कर्मनित रहित अपनांही स्वभाव है आपकं सर्व कर्म रहित होनां, तातैं ये भी रागभाव ज्ञानीकै न होय; यद्यपि