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अष्टपाहुडमें लिंगपाहुडकी भाषावचनिका । ३८१
आगैं इस लिंगपाहुडकूं संपूर्ण करै है अर कहै है जो धर्मं यथार्थ पालै है सो उत्तम सुख पावै है;गाथा - इय लिंगपाहुडमिणं सव्वं बुद्धेहिं देसियं धम्मं । पाले कहसहि सो गाहदि उत्तमं ठाणं ॥२२॥ संस्कृत - इति लिंगप्राभृतमिदं सर्वं बुद्धैः देशितं धर्मम् ।
पालयति कष्टसहितं सः गाहते उत्तमं स्थानम् ||२२|| अर्थ — ऐसैं यह लिंगपाहुडकूं शास्त्र सर्वबुद्ध जे ज्ञानी गणधरादिक तिनि उपदेश्या है ताकूं जानिकरि अर जो मुनि धर्मकूं कष्टसहित बडा जतन कर पालै है राखै है सो उत्तमस्थान जो मोक्ष ताहि पावै है ॥
भावार्थ - यह मुनिका लिंग है सो बडा पुण्यका उदयतें पाइये है ताकूं पायकरि फेरि खोटे कारण मिलाय ताकूं बिगाडै है तो जानिये यह बडा निर्भागी है-चिंतामणि रत्न पाय कौडी साटै गमावै है तातैं आचार्य उपदेश किया है - जो ऐसा पद पाय याकूं बडा यत्नसूं राखणां — कुसंगतिकरि विगाडैगा तो जैसे पहलै संसारभ्रमणथा तैसें फेरि संसार मैं अनंतकाल भ्रमण होयगा अर यत्नतें पालैगा तौ शीघ्रही मोक्ष पावैगा; तातैं जाकूं मोक्ष चाहिये सो मुनिधर्मकं पाय यत्नसहित पालो, परीषहका उपसर्गका उपद्रव आवै तौऊ चिगो मति यह श्रीसर्वज्ञदेवका उपदेश हैं ॥ २२ ॥
ऐसैं यह लिंगपाहुड ग्रंथ पूर्ण किया ताका संक्षेप ऐसैं जो — इस पंचमकाल मैं जिनलिंग धारि फेरि काल दुर्भिक्षके निमित्ततैं भ्रष्ट भये भेष बिगाड्या अर्द्धफालक कहाये, तिनिमैं फेरि श्वेतांबर भये, तिनिमैं भी यापनीय भये, इत्यादिक होय शिथिलाचार के पोषके शास्त्र रचि स्वच्छंद भये, तिनि केतेक निपट निंद्य प्रवृत्ति करनें लगे, तिनिका निषेधका मित्रकरि सर्वके उपदेशकूं यह ग्रंथ है ताकूं समझिकरि श्रद्धान :