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पंडित जयचंद्रजी झावड़ा विरचित
आत्मस्वभाव प्रतिकूल है; अर ज्ञानी भये पीछे चारित्रमोहका उदय रहे जेसे कळूक राग रहै है ता• कर्मजन्य अपराध मान है, तिस रागरौं राग नाही है ता विरक्त ही है तातै ज्ञानी परद्रव्य रागी न कहिये; ऐसें जाननां ॥ ___ आौं इस अर्थकू संक्षेपकरि कहै है;गाथा-अप्पा झायंताणं दंसणसुद्धीण दिढचरित्ताणं ।
होदि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं ॥७०॥ संस्कृत-आत्मानं ध्यायतां दर्शनशुद्धीनां दृढचारित्राणाम् ।
भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानाम् ॥७०॥ अर्थ-जे पूर्वोक्त प्रकार बिषयनितूं विरक्त है चित्त जिनिका, बहुरि आत्माकू ध्यायते संते वर्ते हैं, बहुरि बाह्य अभ्यंतर दर्शनकी शुद्धता जिनिकै है, बहुरि दृढ चारित्र जिनिकै है, तिनिकै निश्चयकरि निर्वाण होय है ॥ ___ भावार्थ-पूर्व कह्या जो विषयनितूं विरक्त होय आत्माका स्वरूप जांनि जे आत्माकी भावना करें हैं ते संसार” छूटें हैं, तिसही अर्थकू संक्षेपकरि कह्या है--जो इंद्रियनिके विषयनितूं विरक्त होय बाह्य अभ्यंतर दर्शनकी शुद्धताकरि दृढ चारित्र पाले हैं तिनिकै नियमकरि निर्वाणकी प्राप्ति होय है, इंद्रियनिके विषयनिविर्षे आसक्तता है सो सर्व अनर्थका मूल है ता” इनितें विरक्त भये उपयोग आत्मामैं लागै जब कार्य सिद्धि होय है ॥ ७० ॥
आगें कहै है जो परद्रव्यविर्षे राग है सो संसारका कारण है तातें योगीश्वर आत्माविर्षे भावना करै है;-- अनुष्टुप-जेण रागो परे दव्वे संसारस्स हि कारणं ।
तेणावि जोइणो णिचं कुज्जा अप्पे समावणा ७१