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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितगाथा--सम्मत्तचरणभहा संजमचरणं चरति जे वि णरा ।
अण्णाणणाणमूढा तह वि ण पावंति णिव्वाणं ॥१०॥ संस्कृत--सम्यक्त्वचरणभ्रष्टाः संयमचरणं चरन्ति येऽपि नराः।
___अज्ञानज्ञानमूढाः तथाऽपि न प्राप्नुवंति निवोणम्॥१० अर्थ---जे पुरुष सम्यक्त्वचरण चारित्रकरि भ्रष्ट हैं अर संयम आचरण करें हैं तोऊ ते अज्ञानकरि मूढदृष्टी भये संते निर्वाणकू नाहीं पावै हैं ।
भावार्थ--सम्यक्त्वचरणचारित्रविना संयमचरणचारित्र निर्वाणका कारण नाही है जाते सम्यग्ज्ञान विना तौ ज्ञान मिथ्या कहावै है सो ऐसे सम्यक्त्वविना चारित्रकै मिथ्यापणां आवै है ॥ १० ॥
आगें प्रश्न उपजैहै जो ऐसा सम्यक्त्वचरणचारित्रके चिह्न कहा है तिनिकरि तिसकू जानिये ताका उत्तररूप गाथामैं सम्यत्कके चिह्न कहैं हैं;-- गाथा-वच्छल्यं विणएण य अणुकंपाए सुदाणदच्छाए ।
मग्गगुणसंसणाए अवगृहणरक्खणाए य ॥ ११ ॥ एएहि लक्खणेहिं य लक्खिजइ अन्जवेहिं भावहिं।
जीवो आराहतो जिणसम्मत्तं अमोहेण ॥ १२ ॥ संस्कृत-वात्सल्यं विनयेन च अनुकंपया सुदानदक्षया ।
मार्गगुणशंसनया उपगृहनं रक्षणेन च ॥ ११ ॥ एतैः लक्षणैः च लक्ष्यते आर्जवैः भावैः । जीवः आराधयन् जिनसम्यक्त्वं अमोहेन ॥ १२ ॥
१-मुद्रित संस्कृत सटीक प्रतिमें यह गाथा ही नहीं है, वचनिकाकी तीनों प्रतियों में है।