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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
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साधै है सो मोक्ष होने योग्य भव्य है । इहां फेरि कोऊ पूछै—जो आचार्यनिकी परंपरा कहा ? तहां अन्य ग्रंथनिमैं आचार्यनिकी परंपरा कही है, सो ऐसैं है;__ श्रीवर्द्धमान तीर्थकर सर्वज्ञ देव पीछे तीन तौ केवलज्ञानी भये; गौतम १ सुधर्म २ जंबू ३ । बहुरि तापी0 पांच श्रुतकेवली भये तिनिकू द्वादशांग सूत्रका ज्ञान भया,-विष्णु १ नंदिमित्र २ अपराजित ३ गोवर्द्धन ४ भद्रबाहु ५ । तिनिपीछे दश पूर्वनिके पाठी ग्यारह भये; विशाख १ प्रौष्ठिल २ क्षत्रिय ३ जयसेन ४ नागसेन ५ सिद्धार्थ ६ धृतिषेण ७ विजय ८ बुद्धिल ९ गंगदेव १० धर्मसेन ११ । तिनि पीठे पांच ग्यारह अंगनिके धारक भये; नक्षत्र १ जयपाल २ पांडु ३ ध्रुवसेन ४ कंस ५ । बहुरि तिनि पीछे एक अंगके धारक च्यार भये; सुभद्र १ यशोभद्र २ भद्रबाहु ३ लोहाचार्य ४ । इनि पीछे एक अंगके पूर्ण ज्ञानीकी तौ व्युच्छित्ति भई अर अंगका एकदेश अर्थके ज्ञानी आचार्य भये तिनिमैं केतेकनिके नाम;-अर्हद्वलि, माघनंदि, धरसेन, पुष्पदंत, भूतवलि, जिनचन्द्र, कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, शिवकोटि, शिवायन, पूज्यपाद, वीरसेन, जिनसेन, नेमिचन्द्र इत्यादि । बहुरि तिनि पीछे तिनिकी परिपाटीमैं आचार्य भये तिनि” अर्थका व्युच्छेद नहीं भया, ऐसे दिगंबरनिके संप्रदायमैं प्ररूपणा यथार्थ है । बहुरि अन्य श्वेताम्बरादिक वर्द्धमानस्वामी” परंपरा मिलावै है सो कल्पित है जातें भद्रबाहु स्वामी पीछे केई मुनिकालमैं भ्रष्ट भये ते अर्द्धफालक कहाये तिनिकी संप्रदायमैं श्वेताम्बर भये, तिनिमैं देवगणनामा साधु तिनिकी संप्रदायम भया है तानैं सूत्र रचे हैं सो तिनिमें शिथिलाचार पोषनेकुं कल्पित कथा तथा कल्पित आचरणकी कथनी करी है सो प्रमाणभूत नाहीं है। पंचमकालमैं जैनाभासनिकै शिथिलाचारकी बाहुल्यता है सो