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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३०३
अर्थ
- जैसैं सुवर्ण पाषाण है सो सोधनेंकी सामग्री के सबंधकरि शुद्ध सुवर्ण होय है तैसैं काल आदि लब्धि जो द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप सामग्रीकी प्राप्ति ताकरि यहु आत्मा कर्मके संयोगकरि अशुद्ध है सो ही परमात्मा होय है ॥ २४॥
भावार्थ — सुगम है ॥ २४ ॥
आगैं हैं हैं जो - संसारविषै व्रत तपकरि स्वर्ग होय है सो व्रत तप भला है अत्रतादिकरि नरकादिक गति होय है सो अत्रतादिक श्रेष्ठ नांही;गाथा - वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ णिरह इय रेहिं । छायातवहियाणं पडिवालंताण गुरुमेयं ||२५||
संस्कृत- वरं व्रततपोभिः स्वर्गः मा दुःखं भवतु नरके इतरैः । छायातपस्थितानां प्रतिपालयतां गुरुभेदः || २५ ॥
अर्थ- - व्रत अर तपकरि स्वर्ग होय है सो श्रेष्ठ है, बहुरि इतर जो अव्रत अर अतपतिनिकरि प्राणीकै नरकगतिविषै दुःख होय है सो मति होहु, श्रेष्ठ नांही । छाया अर आतपकै विषै तिष्ठनेवालेके जे प्रतिपालक कारण हैं तिनिकै बड़ा भेद है ॥
भावार्थ — जैसैं छायाका कारण तौ वृक्षादिक है, तिनिकरि छाया कोई बैठे सो सुख पावै, बहुरि आतापका कारण सूर्य अग्नि आदिक है तिनिके निमित्ततैं आताप होय ताविषै बैठे सो दुःख पावै ऐसैं इनिमैं बडा भेद है; तेसैं जो व्रत तपकूं आचरै सो स्वर्गका सुख पावै अर इनिकं न आचरै विषय कषायादिककूं सबै सो नरकके दुःख पावै, ऐसें इनिमैं बड़ा भेद है । तातैं इहां कहनेंका यह आशय है जो जेतैं निर्वाण न होय तेतैं व्रत तप आदिक मैं प्रवर्त्तनां श्रेष्ठ है या सांसारिक सुखकी प्राप्ति है अर निर्वाणके साधनें विषै भी ये सहकारी हैं। विषय कषायादिककी प्रवृत्तिका फल तौ केवल नरकादिकके दुःख हैं सो तिनि दुःख