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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुंडकी भाषावचनिका। ३२९ गाथा-बाहिरलिंगेण जुदो अब्भंतरलिंगरहियपरियम्मो ।
सो सगचरित्तभहो मोक्खपहविणासगो साहू ॥६१॥ संस्कृत-बाह्यलिंगेन युतः अभ्यंतरलिंगरहितपरिका ।
सः स्वकचारित्रभ्रष्टः मोक्षपथविनाशकः साधुः॥६१॥ अर्थ---जो जीव बाह्यलिंग भेषकार संयुक्त है, अर अभ्यंतरलिंग जो परद्रव्यते सर्व रागादिक ममत्वभाव रहित आत्माका अनुभवन ताकरि रहित है परिकर्म कहिये परिवर्तन जामैं ऐसा मुनि है सो स्वकचारित्र कहिये अपना आत्मस्वरूपका आचरण जो चारित्र ताकार भ्रष्ट है, याहीतैं मोक्षमार्गका विनाश करनेवाला है ॥ -
भावार्थ---यह संक्षेपकरि कह्या जानूं जो बाह्यलिंगसंयुक्त है अर अभ्यंतर काहये भावलिंग रहित है सो स्वरूपाचरण चारित्रत भ्रष्ट भया मोक्षमार्गका नाश करनेवाला है ॥ ६१ ॥ ___ आगैं कहै है---जो मुखकरि भाया ज्ञान है सो दुःख आये नष्ट होय है तातै तपश्चरणसहित ज्ञानकू भावनां;अनुष्टुपः-सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि ।
. तम्हा जहावलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए ॥६२॥ संस्कृत-सुखेन भावितं ज्ञानं दुःखे जाते विनश्यति ।
तस्मात् यथाबलं योगी आत्मानं दुःखैः भावयेत्॥६२॥ ___ अर्थ-जो सुखकरि भाया हुवा ज्ञान है सो उपसर्ग परीषहादिकरि दुःखळू उपजेतें नष्ट होजाय है तातें यह उपदेश है जो योगी ध्यानी मुनि है सो तपश्चरणादिके कष्ट दुःखसहित आत्माकू भावै ॥ ___ भावार्थ—तपश्चरणका कष्ट अंगीकार करि ज्ञानकू भावै तौ परीषह आये ज्ञानभावनातै चिगै नांही तातै शक्तिसारू दुःख सहित ज्ञानकू भावना,