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अभिज्ञान शाकुन्तल ]
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[ अभिज्ञान शाकुन्तल
शकुन्तला का प्रेम अत्यन्त उद्दाम एवं वासनात्मक है । उसकी विचारशक्ति थोड़ी देर के लिए अवश्य ही सजग रहती है, पर प्रेम की प्रखर ऊष्मा में वह पराजित हो जाती है । उसका यह आवेगजन्य प्रेम अन्ततः विरहताप में जलकर सुवणं की भाँति दमकने लगता है और उसमें अपूर्व दीप्ति आ जाती है । कवि ने शकुन्तला को कलावती के रूप में चित्रित किया है। वह पत्र लिखते समय ( राजा के पास ) अपनी काव्य-रचना - शक्ति का परिचय देती है । उसके हृदय में दुष्यन्त के प्रति अपार स्नेह एवं श्रद्धा का भाव है। दुष्यन्त के द्वारा तिरस्कृत होने एवं समस्त नारी समाज पर दोषारोपण किये जाने पर थोड़ी देर के लिए, अवश्य हो, उसका नारीत्व जाग उठता है, पर बाद में वह सदा अपने भाग्य को ही दोषी ठहराती है ।
सखी और पुत्री के रूप में भी शकुन्तला आदर्श रूप में प्रस्तुत की गयी है । उसकी दोनों सखियाँ उससे अनेक प्रकार का हास-परिहास करती हैं, पर उन्हें वह बुरा नहीं मानती । पना कोई भी रहस्य उनसे छिपाती नहीं । दोनों के प्रति उसके हृदय में प्रगाढ़ स्नेह है। दुष्यन्त के अत्यधिक आग्रह करने पर वह उनसे कहती है कि मुझे पहले सखियों से पूछ लेने दीजिए महर्षि कण्व उसे पुत्री के रूप में मानते हैं और शकुन्तला को उनका अविचल स्नेह प्राप्त होता है । पतिगृह जाने के समय कालिदास ने शकुन्तला के प्रति कण्व के जिस स्नेह एवं भावार्द्रता का चित्रण अपूर्व है । जाते समय शकुन्तला अपनी चिन्ता न करने को कहती है उनका स्वास्थ्य खराब हो जायगा ।
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किया है, वह क्योंकि इससे
शकुन्तला का व्यक्तित्व आदर्श हिन्दू रमणी का है । उसमें पति के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण का भाव है एवं पति के तिरस्कार करने पर उसके अन्तस् का आग और पानी नेत्रों के मार्ग से प्रवाहित होने लगता है। राजा द्वारा व्यंग्य करने पर उसका नारीत्व जागरूक हो जाता है और वह व्यंग्योक्तियों का उत्तर कटूक्तियों से देती हुई राजा को अनार्य भी कह देती है । उसकी कटूक्तियों में उसके हृदय के वास्तविक स्नेह का बल है । मारीच के आश्रम में जब राजा उसके चरणों पर गिर पड़ता है तो वह क्षमा की अद्भुत मूर्ति बनकर सारे क्रोध और कटुता को पी जाती है और राजा के प्रति उसका सारा आक्रोश गल जाता है । पुत्र के पूछने पर कि मां ! यह कौन है ?
वह कहती है कि पुत्र भाग्य से पूछ। राजा को पहचान कर वह अपने मन में जो कुछ सोचती है उसमें उसके हृदय का स्नेह लिपटा हुआ दीखता है । "धीरज धरो, मेरेहृदय ! आज देव ने पिछला सब बैर भुला कर मेरी सुन ली है। आर्यपुत्र ही हैं ।" वह आदर्श पत्नी की भाँति अपने पति को दोषी न
सचमुच ये तो ठहराकर सारे
दोष को अपने भाग्य का कारण मान लेती है ।
किया है । उसका प्रथम रूप प्रेमावेश
कवि ने शकुन्तला का चित्रण तीन रूपों में से भरी हुई उद्दाम कामातुरा युवती का है जो लतापुंजों को आमन्त्रित करती हुई राजा को पुनः आने का संकेत करती है - 'लतावलयसन्तापहारक आमन्त्रये त्वां भूयोऽपि परिभोगाय' । उसका दूसरा रूप पतिद्वारा निराहत निरीह नारी का है जो उसे