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अभिज्ञान शाकुन्तल ]
[ अभिज्ञान शाकुन्तल
वह उसके रूप लावण्य की विवृत्ति करता है उसी प्रकार की सचेष्टता एवं कलात्मक निपुणता उसके शील को भी अनावृत्त करने में लगा देता है। निसर्गकन्या शकुन्तला तपोवन की प्रकृति की भांति नैसर्गिक सौन्दर्य की प्रतिमा है। कवि उसका चरित्रांकन करने में अपनी प्रतिभा को चरम सीमा पर पहुंचा देता है। शकुन्तला के जीवन में रोमांस की मादकता एवं यथार्थ की निर्ममता दोनों का अपूर्व संयोग है। जिसके चित्रण में कवि की रसा, चेतना ने पर्याप्त संयम का सहारा लिया है। यदि शकुन्तला के व्यक्तित्व का रोमांस-रोमांस ही बन गया होता या यथार्थ मात्र यथार्थ बन कर रह गया होता तो कालिदास भारतीयता के प्रतीक न बन पाते ।
[दे. महाकवि कालिदास पृ० १९३ ] राजा दुष्यन्त के अनुसार शकुन्तला अव्याजमनोहर वपु' वाली रमणी है। वह प्रकृति की सहचरी है तथा प्रकृति की सुरम्य गोद में लालित-पालित होने के कारण उसके हृदय में लता-वीरुधों के प्रति भी स्नेह एवं आत्मीयता हो गयी है। तपोवन के कोमल वृक्षों के सिंचन में उसे अपूर्व आह्लाद प्राप्त होता है। मृगछौनों के प्रति भी उसका अधिक स्नेह प्रदर्शित होता है तथा जब वह उन्हें दीकुरों से आहत देखती है तो उनके मुख में हिंगोट का तेल लगाती है। ऋषि कण्व भी उसे अधिक स्नेह करते हैं तथा अतिथि सत्कार का दायित्व भी उसी के ऊपर छोड़ देते हैं। इस प्रकार उसके जीवन में तपोवन की तापसी के व्यक्तित्व के अतिरिक्त गार्हस्थ जीवन की भावना का भी मंजुल सामंजस्य दिखाई पड़ता है । वह शान्त एवं पवित्र वातावरण में पोषित होकर भी अवस्थाजन्य चांचल्य से विभूषित है, जिसका रूप सखियों के साथ होनेवाले उसके हास-परिहास में प्रकट होता है। शकुन्तला के सभी अवयव व्यक्त हो चुके हैं, पर उसका जीवन भोली-भाली मुग्धा नायिका की भाँति है। वह राजा को देखकर अपने मन में होनेवाली काम-विकारजन्य वेदना को सखियों से भी नहीं कहती। किन्तु जब वेदना व्याधि का रूप ग्रहण कर लेती है तब सखियों के पूछने पर अपने रहस्य को खोलती है-'यतः प्रभृतितपोवनरक्षिता स राजर्षिः' । राजा जब उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करता है तब वह लज्जावनत हो जाती है, और प्रियंवदा द्वारा विवाह की चर्चा करने पर वहां से भागने का उपक्रम करती है। तृतीय अंक में राजा से एकान्त में मिलने पर वह बार-बार जाने का ही प्रयास करती है। उसका स्वभाव अत्यन्त सरल है। बार-बार सखियों द्वारा परिहास किये जाने पर भी कुछ नहीं बोलती। कुलपति की कन्या होने पर भी उसे इस बात का घमण्ड नहीं है और वह अपनी सखियों के आदेश का सहर्ष पालन करती है-'हला ! शकुन्तले ! गच्छ, उटजात् फल मिश्रमध्यभाजनमुपाहर' पृ० ५२ ।
शकुन्तला का राजा के साथ गन्धर्व-विवाह करना तथा प्रणयसूत्र में आबद्ध होकर गर्भ धारण करना, कतिपय आलोचकों की दृष्टि से उसके चारित्रिक स्खलन का द्योतक है । पर,'कवि ने उसकी दो सखियों का समावेश कर एवं उनके समक्ष गन्धर्व विवाह की योजना कर उसके चारित्रिक औचित्य की रक्षा की है। प्रारम्भ में दुष्यन्त के प्रति