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प्रथम उद्देशक ]
शब्दार्थ --- से जं पुण जाणेजा वह व्यक्ति जान लेता है । सहसम्मइयाए–जातिस्मरण आदि विशिष्ट बुद्धि से या अपनी बुद्धि से । परवागरणं तीर्थंकर के द्वारा कहे जाने से । अएर्सि अन्तिए वा सोचा अथवा किसी अन्य उपदेशक आदि से सुनकर । तंजहा - इस प्रकार कि । पुरथिमा वा ० = पूर्वदिशा से आया हूँ । जाव णयरीओ ० = यावत् किसी भी दिशाअनुदिशा से आया हूँ । एवमेगेसिं गायं भवइ = कई जीवों को इस प्रकार ज्ञान होता है कि । अत्थि मे आया उववाइए=मेरी आत्मा पुनर्जन्म करने वाली है । जो इमाओ दिसाओ अणुदिसावा - जो इस दिशा - विदिशा से । श्रणुसञ्चरइ-गमनागमन करता है । सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ = सब दिशा विदिशा से जो आया हुआ है और जो सर्वत्र गमनागमन करता है सोऽहं वह मैं हूँ ।
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भावार्थ- कोई कोई जीव अपनी विशिष्ट - जाति - स्मरणादि ज्ञान युक्त बुद्धि से, अथवा तीथकर के कहने से या अन्य उपदेशकों से सुनकर यह जान लेता हैं कि मैं पूर्वदिशा से यावत् किसी भी दिशाविदिशा से आया हुआ हूँ । वह यह भी जान लेता है कि मेरी आत्मा भवान्तर में संचरण करने वाली अतः वह एक दिशा - विदिशा से दूसरी दिशा-विदिशा में गमनागमन करती है । जो सब दिशा - विदिश से आने वाला और सर्वत्र गमनागमन करने वाला है, वही मैं हूँ ।
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विवेचन — इसके पूर्ववर्ती सूत्र में यह बताया गया है कि विकास की ओर अभिमुख बने हुए प्राणियों को आत्मा का चिन्तन होता है और जो कर्म के आवरण से श्रावृत्त होते हैं उन्हें श्रात्मा सम्बन्धी विचारणा कभी नहीं होती। इससे मालूम होता है कि आत्म विकास के लिए आत्मचिन्तन की सतत आवश्यकता होती है। सतत आत्म-चिन्तन के द्वारा जीवों में वह शक्ति स्फुरित हो जाती है जिसके द्वारा उन्हें आत्म-ज्ञान विशद रूप से होने लगता है । वे आत्मा की भूत और भावी पर्यायों को भी जानने में समर्थ हो जाते हैं ।
( १ ) सह सन्मति या स्वमति ।
( २ ) पर - व्याकरण ।
( ३ ) अन्य अतिशय - ज्ञानियों के वचन ।
प्रस्तुत सूत्र में श्रात्मा की भूत पर्यायों को जानने के साधनों का वर्णन किया गया है । यहाँ निम्न लिखित तीन साधन बताये गये है:
For Private And Personal
आत्मा के साथ हमेशा रहने वाली सद्बुद्धि के द्वारा कोई कोई जीव आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और अपने विशिष्ट-दिशा-विदिशा के श्रागमन को जान लेते हैं । यद्यपि सामान्यतया ति सब प्राणियों को होती है तदपि जिस सन्मति या स्वमति का यहाँ उल्लेख किया गया है वह सब जीवों को नहीं होती । यहाँ सन्मति या स्वमति शब्द से अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, केवलज्ञान और जातिस्मरण ज्ञान का अभिप्राय है ।