________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
प्रथम उद्देशक ]
[२३
जानता है या इसके जानने से क्या लाभ ? जीव असत् है, यह कौन जानता है अथवा इसके जानने से क्या लाभ ? यो सातों भङ्ग घटा लेने चाहिए । नव पदार्थों का इन सात भंगों द्वारा विचार करने से ६३ भेद हुए । अज्ञानवादी उत्पत्ति को दसवाँ पदार्थ मानते हैं । उसके ये चार भंग हैं:(१) पदार्थों की उत्पत्ति सत् है (२) या असत् है (३) या सदसद् है (४) या अवक्तव्य है। पूर्वोक्त ६३ में ये चार मिलाने से ६७ मेद हो जाते हैं।
अज्ञानवादियों की मान्यता यह है कि जीव आदि पदार्थ अतीन्द्रिय हैं इसलिए हम उन्हें नहीं जान सकते हैं। अथवा जान भी ले तो उससे कोई लाभ नहीं होता। हमने जान लिया कि श्रात्मा नित्य है, व्यापक है, अमूर्त है या अनित्य है, अव्यापक है, मूर्त है तो इससे कौन से पुरुषार्थ की सिद्धि हो जाती है ? अर्थात् यह जान लेने पर भी कोई लाभ नहीं होता अतः अज्ञान ही ठीक है। अपराध करने में भी जो अपराध शानपूर्वक किया जाता है वह अधिक अपराध समझा जाता है और अनजान में जो अपराध हो जाता है वह कम समझा जाता है। जानकर अपराध करने से गुरुतर प्रायश्चित्त पाता है और अनजान में अपराध हो जाने से कम प्रायश्चित्त प्राता है अतः पक्षान ही श्रेयस्कर है।
जिस प्रकार कोई म्लेच्छ आर्यभाषा को न जानने के कारण आर्यपुरुष के भाषण की नकल मात्र करता है परन्तु आर्य के अभिप्राय और विवक्षा को नहीं जान सकता है इसी तरह अग्दिर्शी (असर्वज्ञ ) व्यक्ति सर्वक्ष के अभिप्राय और विवक्षा को नहीं जान सकता है। इस कारण श्रमण
और ब्राह्मण अपने अपने ज्ञान को प्रमाणरूप कहते हुए भी परस्पर विरुद्ध अर्थ-भाषण करने से निश्चय अर्थ को नहीं जानते हैं। दूसरे की चित्तवृत्ति का ज्ञान करना बहुत कठिन है। उपदेशक किस अभिप्राय से क्या कहता है यह भलीभाँति जानना कठिन है इस लिए निश्चित अर्थ को न जानने वाले ज्ञानवादी उस म्लेच्छ पुरुष की तरह सर्वश की उक्ति का अनुवाद मात्र करते हैं, वस्तुतः वे बोध रहित हैं । बोध होना दुष्कर है अतः अज्ञान ही श्रेष्ठ है । यह अज्ञानवादियों का पक्ष है।
अज्ञानवादियों का यह कथन युक्ति-शून्य है। उनसे पूछना चाहिए कि तुमने जो अज्ञान की श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयास किया यह ज्ञान पूर्वक है या अज्ञानपूर्वक । यदि ज्ञानपूर्वक है तो तुम्हारा कथन मान्य कैसे हो सकता है ? क्योंकि वह तो अज्ञानपूर्वक कहा गया है। प्रशान से कही हुई बात प्रमाण कैसे हो सकती है ? यदि कहो कि ज्ञानपूर्वक है, तो यह कहना तुम्हारे लिए योग्य नहीं है क्योंकि तुम्हारे मत से हम-तुम को ज्ञान हो ही नहीं सकता। एकान्त अज्ञानवाद स्वीकार करने पर "अज्ञान ही श्रेष्ठ है" यह प्रतिपादन भी नहीं हो सकता क्योंकि यह प्रतिपादन भी ज्ञान-रूप है। अज्ञानवादी भी अपने पक्ष का उपदेश अपने शिष्यों को प्रदान करते हैं इससे उन्होंने दूसरे के अभिप्राय का ग्रहण हो सकना स्वीकार कर लिया है अन्यथा वे उपदेश ही क्यों दें ?
प्रशानवादी अपने और दूसरों को शिक्षा देने में समर्थ नहीं हो सकते। क्योंकि वे स्वयं अज्ञान का पक्ष लेने से अज्ञानी हैं । जो स्वयं अज्ञानी है वह दूसरे को क्या मार्ग बता सकेगा ? जैसे अन्धा व्यक्ति स्वयं अन्धा होने से दूसरे को मार्ग नहीं बता सकता इसी तरह अज्ञानवादी स्ययं अज्ञानी होने से दूसरे को सच्चा ज्ञान नहीं दे सकते हैं।
For Private And Personal