Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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लम्-अमेसमखयं वात्रि सम्बदुक्खेइ वा पुणो। - वज्झा पाणा ण वज्झत्ति, इति वायं में नीसरे॥३०॥ ::, छगया--अशेपमक्षयं वापि सईदुःखमिति वा पुनः ।
वक्ष्याः माणा न वध्याः इति, इति वाचं न निःसजेन् ॥३०॥ ... • अन्वयार्थी--(असे सं) अशेष-सम्पूर्ण वा (अक्खयं) अक्षय-शाश्वतं नित्पर (चा धि) पापि (बा) वा-अथवा (पुणो) पुनः (सनादुक्खेइ वा) सर्व जगद् दुख
पमिति वा न स्वीकात एकान्तनित्यत्य एकान्तदुःखरूपस्याऽभावात. (पाणा बज्झा न बज्झत्ति) प्राणा:-अपराधिनो जीवाः वध्या-व्यापादयितुं योग्याः अथवा न वध्या:-अध्या भवन्ति (इ) इत्याकारकम् (वायं) वाचं-वचनम् (न नीसरे) न-नैव साधुः निःसृजेन्-वदेन, इति ॥३०॥
'असेसमक्खयं वावि' इत्यादि ।।
शब्दार्थ-'अक्षेसं-अशेषम्' समस्त पदार्थ 'अकखयं-अक्षयं शाश्वत नित्य है 'वा-वा' अथवा एकान्ततः अनित्य ही है 'पुणो-पुन:' फिर 'सव्व दुक्खेह-सर्व दुग्यम्' संपूर्ण जगत् दुःखमय है ऐसा मानना नहीं चाहिए 'पाणा वज्झा न वज्झत्ति-प्राणाः वध्याः न वध्या:' यह अप. राधी प्राणी वध करने योग्य है, अथवा वध करने योग्य नहीं है - इति' इस प्रकार का 'वायं-वाचं' वचन भी 'न नीसरेह-न निमजेत्' साधु को बोलना नहीं चाहिए ॥३०॥ ___अन्वयार्थ-समस्त पदार्थ शाश्वत नित्य हैं, अथवा एकान्ततः अनित्य ही हैं, सम्पूर्ण जगत् दुःखमय है, ऐप्ता नहीं मानना चाहिए।
'असेसमक्खयं वावि' या
शार्थ -'असेस-अशेपम्' सघा पहा 'अक्खयं-अक्षय' शाश्वत अर्थात् नित्य छे. 'वा-वा' अथवा tradमनित्य छ 'पुणो-पुनः' जी 'सव्वदुक्खेइ-सर्व दुःखम्' सपू
मय छ, सेभ भानन मे. 'पाणा वज्झा न वज्झचि-प्राणाः वध्याः न वध्या' मा अपराधी प्रा भावाने योग्य छ ? भारवा योग्य नथी ? 'इइ-इति' मा अमायनी 'वाय-वाचे' all 'न नीसरेइ-न निःसृजेतू' साधुणे मालवी न नये. ॥30॥ 11 ,, स-क्याथ-सा पहा शाश्वत-मित्य छ: अ५॥ सन्तत: અનિત્ય છે. સંપૂર્ણ જગત દેખાય છે તેમ માનવું ન જોઈએ. આ અપ