________________
.. · तत्त्वार्थसूत्र . वह धर्म, जिसके होने पर पर से भिन्न स्वमें ही स्व का साक्षात् या आगमानुसार बोध होता है, सम्यग्दर्शन है। आशय यह है कि छद्मस्थ जीवों को आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता, क्योंकि इन्द्रिय और मन की सहायता से होनेवाला या बिना इन्द्रिय और मन की सहायता से होनेवाला जितना भी क्षायोपशमिक ज्ञान है वह सावरण होने से सभी पदार्थो को ही जान सकता है । यतः आत्मा अरूपी है इसलिये उसका क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा साक्षात्कार न होकर निरावरण ज्ञान के द्वारा ही साक्षात्कार हो सकता है। इससे सिद्ध होता है कि छद्मस्थ जीव आगमानुसार आत्मा का श्रद्धान करते हैं। उनका अमूर्त पदार्थ विषयक समस्त अनुभव आगमाश्रित है प्रत्यक्षज्ञानानित नहीं। यही कारण है कि प्रकृत में 'दर्शन' का अर्थ श्रद्धान किया है।
यह श्रद्धान विविध प्रकार का हो सकता है पर वह सब यहाँ विवक्षित न हो कर ऐसा श्रद्धान ही यहाँ विवक्षित है जो तत्त्वार्थ विषयक हो । इसीसे सूत्रकार ने तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है ।।२।।
सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के हेतु
तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥३॥ वह (सम्यग्दर्शन ) निसर्ग से अर्थात् उपदेश रूप बाह्य निमित्त के बिना या अधिगम से अर्थात् उपदेश रूप बाह्य निमित्त से उत्पन्न होता है।
यद्यपि निसर्ग का अर्थ स्वभाव है और अधिगम का अर्थ ज्ञान, तथापि प्रकृत में निसर्ग और अधिगम ये दोनों सापेक्ष शब्द निभरसियर होने से एक शब्द का जो अर्थ लिया जायगा दूसरे शब्द का अर्थ . शब्द का उससे ठीक उलटा अर्थ होगा। यह तो
- मानी हुई बात है कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्तिमात्र में ज्ञान की अपेक्षा रहती है। बिना तत्त्वज्ञान के सम्यग्दर्शन उत्पन्न