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तत्त्वार्थसूत्र [४. २४-२५. अपेक्षा बारह कल्प हुए । इसी अध्याय के तीसरे सूत्र में इन्हीं बारह भेदों का उल्लेख किया है और उन्नीसवें सूत्र में स्थानों की अपेक्षा सोलह नाम गिनाये हैं। वेयक से लेकर आगे के सभी कल्पातीत हैं, क्यों कि उनमें इन्द्र, सामानिक आदि की कल्पना नहीं है।
लौकान्तिक देवों का वर्णनब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः ॥ २४ ॥
सारस्वतादित्यवन्धरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्चा॥२५॥ ब्रह्म लोक ही लौकान्तिक देवों का आलय-निवास स्थान है। सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट ये लौकान्तिक हैं। ___ लौकान्तिक शब्द में लोक शब्द से ब्रह्मलोक लिया गया है और अन्त शब्द का अर्थ कोना या निकट है। इससे यह अर्थ हुआ कि जो ब्रह्मलोक के निकट चारों ओर निवास करते हैं वे लौकान्तिक देव हैं। अथवा लोक का अर्थ संसार है, इसलिये यह अर्थ हुआ कि जिनका संसार निकट है वे लौकान्तिक देव हैं। ये सभी एक भवधारण करके मोक्ष जाते हैं, इसलिये निकट संसारी हैं। लौकान्तिक देव विषयों से विरत रहते हैं इसलिये देवर्षि कहलाते हैं। ये इन्द्र
आदि की कल्पना से भी रहित हैं और तीर्थकरके निष्क्रमण-दीक्षा कल्याणक के समय आकर उन्हें प्रतिबोधित करने का अपना आचार पालन करते हैं । अन्य समय में ये अपने स्थान पर ही रहते हैं।
लौकान्तिक देवों के मुख्य आठ भेद हैं। जिनमें से सारस्वत पूर्वोत्तर अर्थात् ईशान कोण में, आदित्य पूर्व दिशा में, वह्नि पूर्व दक्षिण अर्थात् आग्नेय कोण में, अरुण दक्षिण दिशा में, गर्दतोय दक्षिणपश्चिम अर्थात् नैऋत्य कोण में, तुषित पश्चिम दिशा में, अव्यावाध