Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 446
________________ ८. ५-१३.] मूलप्रकृति के अवान्तर भेद और उनका नामनिर्देश ३६१ वह साधारण नामकर्म है। ६, १०-जिसका उदय रस, रुधिर, मेदा, मज्जा हड्डी, मांस और वीये इनके स्थिर रहने में निमित्त है वह स्थिर नामकर्म है और जिसका उदय इनके क्रमसे परिणमनमें निमित्त है वह अस्थिर नामकर्म है । ११,१२-जिसका उदय आंगोपांगोंके प्रशस्त होने में निमित्त है वह शुभनाम कर्म है और जिसका उदय आंगोपांगों के अप्रशस्त होनेमें निमित्त है वह अशुभ नामकर्म है । १३,१४-स्त्री और पुरुषोंके सौभाग्यमें निमित्त सुभग नामकर्म है और दुर्भाग्यमें निमित्त दुर्भग नामकर्म है। १५,१६---जिसका उदय मधुर स्वरके होने में निमित्त है वह सुस्वर नाम कम है और इसके विपरीत दुःस्वर नामकर्म हैं। १७,१८-जिस कर्मका उदय जीवके बहुमान्य और ग्रहण करने योग्य होने में निमित्त है वह प्रादेय नाम कर्म है और इसके विपरीत अनादेय नामकर्म है । १६,-२०जिसका उदय जीवमें ऐसी योग्यताके लानेमें निमित्त है जिससे उसके उदय विद्यमान और अविद्यमान सभी प्रकारके गुणोंका प्रकाशन होता है वह यशःकीर्ति नाम कर्म है और इससे विपरीत अयशःकोति नामकर्म है ये नाम कर्मकी बयालीस प्रकृतियां है जिनका स्वरूप निर्देश यहां पर किया है। पर ऐसा करते हुए सूत्र पाठका ख्याल नहीं रखा है इससे उनका विभाग करने में विशेष सुविधा रहो है ॥ ११ ॥ जिस कर्मका उदय उच्च गोत्रके प्राप्त करने में निमित्त है वह उच्च गोत्र है । और जिसका उदय नीच गोत्रके प्राप्त करने में निमित्त है वह नीच गोत्र है। गोत्र, कुल, वंश और सन्तान ये एकार्थ वाची शब्द र हैं। ब्राह्मण परंपरा वर्णव्यवस्था जन्मसे मानती है " इसलिये उसके यहां उच्च गोत्र और नीचगोत्र विभाग प्रकृतियां - उस आधारसे किया गया है पर जैन परम्परा यह सब कर्मसे मानती है । इस लिये इस परम्परामें गोत्रका विभाग वर्णव्यवस्था के आधारसे नहीं किया जा सकता है। यहां इसका आधार

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