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तत्त्वार्थसूत्र
[५. १७. है। शरीर से आत्मा पृथक् है यह विश्लेपण द्वारा ही तो जाना जाता है। मृत व्यक्ति के शरीर को जब हम पुस्तक आदि अन्य निर्जीव पदार्थों की तरह निश्चेष्ट और इन्द्रियों के व्यापार से रहित देखते हैं वास्तव में तब हमें शरीर और आत्मा का विवेक ज्ञात होता है। इसी प्रकार धर्मादिक द्रव्योंका अस्तित्व भी इनके कार्यों द्वारा ही जाना जा सकता है, क्योंकि पुद्गल द्रव्यको छोड़कर शेष सब द्रव्य अमूर्त हैं । छद्मस्थ जन उनका साक्षात्कार नहीं कर सकते। अब प्रश्न यह है कि वे कौन से कार्य हैं जिनसे धर्म और अधर्म द्रव्यका अस्तित्व सिद्ध होता है। प्रस्तुत सूत्र में इसी प्रश्नका उत्तर दिया गया है। संसार में जीव और पुद्गल ये दो पदार्थ गतिशील भी हैं और स्थितिशील भी। इनके अतिरिक्त शेष सब पदार्थ निष्क्रिय होने से स्थितिशील ही हैं किन्तु यहां पर गतिपूर्वक होने वाली स्थिति और स्थितिपूर्वक होनेवाली गति विवक्षित है जो जीव और पुद्गल इन दोके सिवा अन्यत्र नहीं पाई 'जाती । यद्यपि जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य स्वयं गमन करते हैं
और स्वयं स्थित भी होते हैं इसलिये ये इनके परिणाम हैं अर्थात् गति क्रिया और स्थिति क्रिया ये जीव और पुद्गलको छोड़कर अन्यत्र नहीं होती इसलिये ये ही इन दोनों क्रियाओंके उपादान कारण हैं। जो कारण स्वयं कार्यरूप परिणम जाता है वह उपादान कारण कहलाता है। किन्तु ऐसा नियम है कि प्रत्येक कार्य उपादान कारण और निमित्त कारण इन दोके मेल से होता है, केवल एक कारण से कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। छात्र सुबोध है पर अध्यापक या पुस्तकका निमित्त न मिले तो वह पढ़ नहीं सकता। यहां उपादान है किन्तु निमित्त नहीं इसलिये कार्य नहीं हुआ। छात्रको अध्यापक या पुस्तकका निमित्त मिल रहा है पर वह मन्दबुद्धि है, इस लिये भी वह पढ़ नहीं सकता। यहां निमित्त है किन्तु उपादान नहीं, इस लिये कार्य नहीं हुआ। इससे स्पष्ट हो जाता है कि गति और स्थिति का कोई निमित्त