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तत्त्वार्थसूत्र [४. १६-१९. बक, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि में उनका निवास है।
तीन निकाय के देवों की सामान्य और विशेष संज्ञाएँ बतला आये । अब प्रकरण चतुर्थ निकाय का है। इसकी सामान्य संज्ञा वैमानिक है। वैमानिक यह संज्ञा गैदिक है, क्योंकि केवल चतुर्थ निकाय के देव ही विमानों में नहीं रहते, ज्योतिष्क देव भी विमानों में रहते हैं पर रूढ़ि से यह संज्ञा चतुर्थ निकाय के देवों को ही प्राप्त है ।। १६॥ .
इनके कल्पोपपन्न और कल्पातीत ये दो भेद हैं। इन्द्र आदि दश प्रकार के भेदों की कल्पना जहाँ सम्भव है वे कल्प कहलाते हैं । यद्यपि वैमानिक व उनके
. यह कल्पना भवनत्रिकों में भी सम्भव है पर वहाँ भेद
* कल्पातीत भेद सम्भव न होने से वैमानिकों में ही
यह रूढ़ है। जो कल्पों में रहते हैं वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं और जो कल्पों के ऊपर रहते हैं वे कल्पातीत कहलाते हैं। ये दोनों प्रकार के वैमानिक न तो एक जगह हैं और न तिरछे हैं किन्तु ऊपर ऊपर अवस्थित हैं ।। ५७-१८ ॥
जिन कल्पों में बारह प्रकार के कल्पोपपन्न रहते हैं वे कल्प सोलह हैं। उनमें से सौधर्म कल्प मेरु पर्वत के ऊपर अवस्थित है। यह दक्षिण दिशा में फैला हुआ है। इस कल्प के ऋजु विमान और मेरु पर्वत की चूलिका में एक बालका अन्तर है। इसके समान आकाश प्रदेश में उत्तर की ओर ऐशान कल्प है। सौधर्म कल्प के ठीक ऊपर सानत्कुमार कल्प है और ऐशान कल्प के ठीक ऊपर सानत्कुमार की समश्रेणी में माहेन्द्र कल्प है। इसी प्रकार आगे के दो-दो कल्पों का जोड़ा समश्रेणि में ऊपर-ऊपर अवस्थित है। उनमें से पाँचवाँ सातवाँ, नौवाँ, ग्यारहवाँ, तेरहवाँ और पन्द्रहवाँ कल्प दक्षिण दिशा में अवस्थित है और छठा, आठवाँ, दसवाँ, बारहवाँ, चौदहवाँ तथा सोलहवाँ कल्प उत्तर दिशा