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तत्त्वार्थसूत्र
[१.२३.२४. मनःपर्यय ज्ञान के भेद और उनका अन्तरऋजुविपुलमती मनापर्ययः* ॥ २३ ॥
विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ।। २४ ॥ ऋजुमति और विपुलमति ये दो मनःपर्यय ज्ञान हैं। विशुद्धि और अप्रतिपातकी अपेक्षा उनमें अन्तर है।
मनःपर्यय ज्ञान का अर्थ है मन की पर्यायों का ज्ञान । आशय यह है कि संज्ञी जीवों के मनमें जितने विकल्प उत्पन्न होते हैं संस्कार रूप से वे उसमें कायम रहते हैं; मनःपर्यय ज्ञान संस्कार रूप से स्थित मन के इन्हीं विकल्पों को जानता है, इसलिये वह मनःपर्यय ज्ञान कहलाता है।
षट्खण्डागम कर्मप्रकृति अनुयोग द्वार में एक सूत्र आया है जिसका भाव है कि 'मनःपर्ययज्ञानी मन से मानस को ग्रहण करके मनःपर्यय ज्ञान से दूसरे के नाम, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवन, मरण, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, नगर विनाश, देश विनाश, जनपद विनाश, खेट विनाश, कर्वट विनाश, मंडव विनाश, पत्तन विनाश, द्रोणमुख विनाश, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुवृष्टि, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्षेम, अक्षेम, भय और रोग को काल की मर्यादा लिये हुए जानता है। तात्पर्य यह है कि मनःपर्यय ज्ञान इन सबके उत्पाद, स्थिति और विनाश को जानता है।
इस सूत्र में यद्यपि मनःपर्यय ज्ञान द्वारा संज्ञा और मति आदि के जानने का उल्लेख है तथापि उक्त विविध विषयों को मनःपर्ययज्ञानी मन की पर्याय रूप से ही जानता है अन्य प्रकार से नहीं यह इसका
* श्वेताम्बर पाठ 'मन-पर्ययः' के स्थान में मनःपर्यायः' है। 'विशुद्धिक्षेत्र-' इत्यादि सूत्र में भी ऐसा ही पाठ है।