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तत्त्वार्थसूत्र [४. ३३-३४. इस प्रकार सातवें कल्पयगल में बीस सागरोपम और आठवें कल्पयुगल में बाईस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति होती है। इसके आगे नौ ग्रेवेयकों में से प्रत्येक में एक-एक सागरोपम स्थिति बढ़कर अन्तिम प्रैवेयक में इकतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है । तथा नौ अनुदिशों में बत्तीस सागरोपम और चार अनुत्तरों में तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति होती है। सर्वार्थसिद्धि में पूरी तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । २६-३२ ।
वैमानिकों की जघन्य स्थितिअपरा पल्योपममधिकम् । ३३ । परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा । ३४ । प्रथम कल्पयुगल में जघन्य स्थिांत साधिक एक पल्योपम की है।
तथा पूर्व पूर्व को उत्कृष्ट स्थिति अनन्तर-अनन्तर की जघन्य स्थिति है।
प्रस्तुत दो सूत्रों में दो बातें बतलाई गई हैं। प्रथम यह कि प्रथम कल्पयुगल में जघन्य स्थिति साधिक एक पल्योपम है और दूसरी यह कि पहले पहले की उत्कृष्ट स्थिति उसके आगे आगे की जघन्य स्थिति है। इसका यह अभिप्राय है कि प्रथम कल्पयुगल की उत्कृष्ट स्थिति दूसरे कल्पयुगल में जघन्य स्थिति है । तथा दूसरे कल्पयुगल की उत्कृष्ट स्थिति तीसरे कल्पयुगल में जघन्य स्थिति है । इसी प्रकार चार अनुत्तर विमानों तक समझना चाहिये । अर्थात् नौ अनुदिश विमानों की उत्कृष्ट स्थिति विजयादिक चार अनुत्तर विमानों की जघन्य स्थिति है । सर्वार्थसिद्धि में जघन्य
और उत्कृष्ट स्थिति का भेद ही नहीं है, इसलिये उसकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति नहीं बतलाई ।
शङ्का-सूत्र से यह कैसे जाना कि सर्वार्थसिद्धि में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति नहीं होती ?