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८. २५-२६. ] पुण्य और पाप प्रकृतियों का विभाग के रहते हुए भी पुण्य प्रकृतियों का बन्ध होता है पर ऐसे समय पुण्य या पाप प्रकृतियों को हीन अनुभाग मिलता है. इसलिये प्रकृतियों में पुण्य और पाप का विभाग प्रकृष्ट अनुभाग की अपेक्षा से ही किया जाता है। अब आगे पुण्य और पाप प्रकृतियों का निर्देश करते है
साता वेदनीय, नरकायु के सिवा तीन आयु, मनुष्यगति, देवर्गात, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक आदि पाँच शरीर, औदारिक आदि तीन
.. आंगोपांग, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच१२ पुण्यालया संहासन. प्रशस्त स्पर्श.प्रशस्त रस, प्रशस्त गन्ध, प्रशस्त वण, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थकर और. उच्चगोत्र ये ४२ पुण्य प्रकृतियाँ हैं। ___पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, नरकायु, नरकगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय
.. आदि चार जाति, प्रथम संस्थान के सिवा पाँच ८२ पाप प्रकृतियाँ
तथा संस्थान, प्रथम संहनन के सिवा पाँच संहनन, आप्रशस्त स्पर्श आदि चार, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, जीच गोत्र और पाँच अन्तराय ये ८२ पाप प्रकृतियाँ हैं।
इसी प्रकार ये सब कर्म घाति और अघाति इन दो भागों में बटे हुए हैं। घातिरूप अनुभाग शक्ति के तारतम्य की अपेक्षा चार भेद हैं लता, दारु, अस्थि और शैल। इसके भी सर्वघाति और देशघाति ये दो भेद हैं । लतारूप अनुभाग शक्ति और दारू का कुछ भाग यह देशघाति अनुभाग शक्ति है। शेष सब सर्वघाति अनुभाग शक्ति है। यह देशघाति और सर्वघाति अनुभाग शक्ति पापरूप ही होती है। किन्तु