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५. ३०.] सत् की व्याख्या
२५१ बात का निश्चय नहीं होता तब तक केवल इतने आधार से सक्रिय पदार्थ को प्रेरक रूप से निमित्त मानना उचित नहीं है।
शङ्का-बुद्धि इसका नियामक है। बुद्धि से यह स्थिर कर लिया जाता है कि यह काम इस प्रकार से होना चाहिये। किन्तु जब वह काम प्रयत्न करने पर भी उस प्रकार से नहीं होता तो मालूम पड़ता है कि यहाँ निमित्त की बलवत्ता है। तभी तो वह काम जैसा विचारा था और जैसा प्रयत्न किया था वैसा नहीं हुआ ?
समाधान-बात यह है कि जैसे कोई कार्य अन्य के अधीन नहीं वैसे ही वह बुद्धि और प्रयत्न के भी अधीन नहीं है। कार्य अपनी गति से होता है। यदि उसका बुद्धि और प्रयत्न से मेल बैठ गया तो समझा जाता है कि यह बुद्धि और प्रयत्न से हुआ है और यदि उसका अन्य बाह्य निमित्त से मेल बैठ गया तो यह समझते हैं कि यह इससे हुआ है। तत्त्वतः प्रत्येक कार्य होता है अपनी अपनी योग्यता से ही क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक भी उसका उसी के साथ पाया जाता है। इसलिये निमित्त को किसी भी हालत में प्रेरक कारण मानना उचित नहीं है।
शङ्का-तब तो किसी भी कार्य में पुरुषार्थ का कोई स्थान ही नहीं रह जाता? ___ समाधान-पुरुषार्थ का अर्थ प्रयत्न है, इसलिये जिस कार्य के होने में पुरुष का प्रयत्न निमित्त होता है वह कार्य पुरुषार्थ पूर्वक कहा जाता है, अतः कार्य में पुरुषार्थ का कोई स्थान ही नहीं है यह तो कहा नहीं जा सकता।
शङ्का-दैव का कार्य से क्या सम्बन्ध है ?
समाधान-उपादान-उपादेय सम्बन्ध तो है ही किन्तु कहीं कहीं निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी है। दैव शब्द के दो अर्थ हैं-पूर्व कर्म और योग्यता । योग्यता यह प्रत्येक पदार्थ के स्वभावगत होती है, इस