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६. १८-२७.] आठ प्रकार के कर्मों के प्रास्त्रवों के भेद २८५
दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्यकरणमहंदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।। २४ ॥
. परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥ २५ ॥
तद्विपर्पयो नीचैत्यनुत्सको चोत्तरस्य ॥ २६ ॥ विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २७ ॥
ज्ञान और दर्शन के विषय में किये गये प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय प्रासादन और उपघात ये ज्ञानावरण कर्म और दर्शनावरण कर्म के आस्रव हैं।
निज आत्मा में, पर आत्मा में या उभय आत्माओं में स्थित दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन ये असातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं।
भूत-अनुकम्पा, व्रति-अनुकम्पा, दान और सरागसंयम आदि का उचित ध्यान रखना तथा क्षान्ति और शौच ये सातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं।
केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देवका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है। ___ कषाय के उदय से होने वाला आत्मा का तीव्र परिणाम चारित्र मोहनीय कर्म का आमव है।
बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह का भाव नरकायुका श्रास्रव है। माया तिर्यञ्चायु का आस्रव है। अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह का भाव मनुष्यायुका आस्रव है।