Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 484
________________ ६. ८-१७. ]. परीषों का वर्णन ४२६ का अर्थ है स्थूलकाय | यह नौवें गुणस्थान तक सम्भव है इस दृष्टि से बाद साम्पराय का अर्थ नौवें गुणस्थान तक किया है वैसे तो प्रदर्शन मरीषह का पाया जाना आठवें व नौवें गुणस्थान में किसी भी हालत में सम्भव नहीं है, क्योंकि इन गुणस्थानों में दर्शनमोहनीय की किसी भी प्रकृति का उदय नहीं पाया जाता ।। १२ ।। अब कौन कौन परीषह किन-किन कर्मों के निमित्त से होते हैं यह बतलाते हैं । ज्ञानावरण कर्म प्रज्ञा और अज्ञान इन दो परीषहों का कारण है । यहाँ प्रज्ञा से क्षायोपशमिक विशेष ज्ञान कारणों का निर्देश लिया गया है। ऐसे ज्ञान से कचित् कदाचित् श्रहंकार पैदा होता हुआ देखा जाता है पर यह अहंकार अन्य ज्ञानावरण के सद्भाव में ही सम्भव है इसलिये प्रज्ञा परीषह का कारण ज्ञानावरण कर्म बतलाया है | दर्शनमोह प्रदर्शन परीषह का कारण है । अन्तराय कर्म लाभ परीषह का कारण है | चारित्रमोहनीय कर्म नग्नता, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार पुरस्कार परीपड़ों के कारण हैं । तथा वेदनीय कर्म उक्त परीषहों के सिवा शेष ग्यारह परीषों के कारण हैं । बाईस परीषों में साथ सम्भव नहीं हैं । ऐसे कितने ही परीषह हैं जो एक जीव में एक जैसे शीत और उष्ण ये दोनों परीषह एक साथ सम्भव नहीं हैं । जब शीत परीषह होगा तब उष्ण परीषह सम्भव नहीं और जब उष्ण परीषह होगा तब शीत परीषह सम्भव नहीं । इस प्रकार एक तो यह कम हो जाता है । इसी प्रकार चर्या, शय्या और निषद्या ये तीनों परीषह एकसाथ सम्भव नहीं, इनमें से एक काल में एक ही होगा । इस प्रकार दो ये कम हो जाते हैं। कुल मिलाकर तीन कम हुए। इसी से सूत्रकार ने एक साथ एक जीव में उन्नीस परीषह बतलाये हैं । एक साथ एक जीव में सम्भव परीषहों की संख्या

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