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तत्त्वार्थ सूत्र
[५.३०. बड़ा पक्षपात होता। किन्तु वह ऐसा पक्षपात स्वयं कैसे कर सकता था। यदि कोई दूसरा पक्षपात करे तो उसका न्याय उसके दरबार में हो सकता है। पर यदि वह स्वयं इस प्रकार का पक्षपात करने लगे तो उसका न्याय कहाँ होगा। तब तो प्राणियों की उसके ऊपर से आस्था ही उठ जायगी। इसलिये उसने अपना यही न्याय रखा है कि जो जैसा करे उसे उसके कर्मानुसार ही योनि, बुद्धि और भोग मिलने चाहिये।
किन्तु विचार करने से ज्ञात होता है कि जिस आधार से यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई है वह आधार ही सदोप है। क्या भला यह युक्ति से पटने की बात है कि पदार्थ तो हो और उसका कोई निजरूप न हो ? जब कि जगत् में पदार्थ हैं तो उनका निजरूप भी होना चाहिये । अन्यथा उन्हें अस्तिरूप नहीं माना जा सकता है। इस प्रकार जब कि प्रत्येक पदार्थ का अपना निज स्वरूप सिद्ध हो जाता है तो बनना बिगड़ना भी उसका उसी से मानना पड़ता है। इसलिये सिद्धान्त तो यही स्थिर होता है कि प्रत्येक पदार्थ का कर्तृत्व उसका उसी में है अन्य में नहीं। फिर भी सर्वथा भेदवादियों ने इस संगत मान्यता की ओर ध्यान न देकर स्वार्थवश अनेक कल्पनाएँ कर डाली हैं और दूसरों को उन कल्पनाओं की उलझन में फंसा कर उनकी बुद्धि पर ताला लगा दिया है। इससे वे इतने मन्द बुद्धि हो गये हैं कि वे इन कल्पनाओं के जाल से सुलझ कर बाहर निकल ही नहीं पाते। यदि थोड़ी देर को यह मान भी लिया जाय कि प्रत्येक कार्य का कर्ता ईश्वर है तो वह सब प्राणियों के कर्मों का भी तो कर्ता हुआ। फिर यह सिद्धान्त कहाँ रहा कि जो जिस प्रकार का कर्म करता है उसे वह उसके . कर्मानुसार ही योनि, बुद्धि और भोग देता है। तब तो यही सिद्धान्त स्थिर होता है कि अच्छा बुरा जो कुछ भी होता है वह स्वयं ईश्वर ही करता कराता है। कर्म नाम की तो कोई वस्तु ही नहीं ठहरती । पर ईश्वर का यह कतृत्व तो तब बने जब एक तो अन्य पदार्थ अन्य का