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७. १.] व्रत का स्वरूप
३०५ जीवन में घुल-मिल गई है दूर किया जाय, क्योंकि इस कमजोरी को हटाये बिना मोक्ष का प्राप्त होना असम्भव है
सर्वप्रथम यह श्रद्धा करनी होती है कि मैं भिन्न है और ये शरीर. स्त्री, पुत्र, धनादि भिन्न हैं। जब यह श्रद्धा दृढ़ हो जाती है तब वह इन शरीरादि के त्याग के लिये यथाशक्ति प्रयत्नशील होता है। जो पर का रञ्चमात्र भी सहारा लिये बिना स्वावलम्बनपूर्वक जीवन यापन करने का अभिलाषी है वह यति धर्म को स्वीकार करता है और जो एकाएक ऐसा करने में अपने को असमर्थ पाता है वह गृहस्थ धर्म को स्वीकार करता है । गृहस्थ शनैः शनैः स्वावलम्बन की शिक्षा लेता है। जैसे जैसे स्वावलम्बनपूर्वक जीवन बिताने में उसके दृढ़ता आती जाती है वैसे ही वैसे वह पर पदार्थों के आलम्बन को छोड़ता जाता है और अन्त में वह भी पूर्ण स्वावलम्बी बन जाता है। माना कि यति शरीर के लिये आहार लेता है, मलमूत्र का त्याग भी करता है। थकावट आदि के आने पर थोड़ा विश्राम भी करता है, स्व में चित्त के न रमने पर अन्य को उपदेश आदि भी देता है, केश आदि के बढ़ जाने पर उनका उत्पाटन भी करता है और तीर्थयात्रादि के लिये गमनागमन भी करता है, इसलिये यह शङ्का होती है कि यति को स्वावलम्बी कैसे कहा जाय ? प्रश्न है तो मार्मिक और किसी अंश में जीवन की कमजोरी को व्यक्त करनेवाला भी, पर इस कमजोरी को एकाएक निकाल फेंकना असम्भव है। शरीर का सम्बन्ध ऐसा है जिसका त्याग एक झटके में नहीं किया जा सकता । जैसे धन, पुत्र आदि जुदे हैं वैसे शरीर जुदा नहीं है। शरीर और आत्मप्रदेश एक क्षेत्रावगाही हो रहे हैं और इनका परस्पर संश्लप भी हो रहा है, अतः शरीर के रहते हुए यावन्मात्र प्रवृत्ति में इनका निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बना हुआ है। यही कारण है कि पूर्ण स्वावलम्बन ( यतिधर्म) की दीक्षा ले लेने पर भी संसार अवस्था में जीवन्मुक्त अवस्था के मिलने के पूर्वतक बहुत-सी शरीराश्रित क्रियाय करनी