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२.२२.-२४.] इन्द्रियों के स्वामी ___ पृथिवीकायिक से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों के तो संज्ञा होती ही नहीं, पञ्चेन्द्रियों के होती है पर सबके नहीं। नारकी, मनुष्य और देव ये तो पञ्चेन्द्रिय ही होते हैं तथा संज्ञा भी इन सबके पाई जाती है। अब रहे तिर्यश्च सो इनमें चतुरिन्द्रिय तक के तियचों के तो संज्ञा होती ही नहीं । इनके सिवा जो पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च हैं वे दो प्रकार के हैं कुछ संज्ञावाले और कुछ संज्ञा रहित । इस प्रकार पञ्चेन्द्रियों में सब नारकी, सब मनुष्य और सब देव ये नियम से संज्ञावाले हैं किन्तु तिर्यञ्चों में कुछ संज्ञावाले हैं और कुछ संज्ञा रहित हैं।
शंका--किसके संज्ञा है और किसके नहीं यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-जिनके मन होता है उनके संज्ञा होती है और जिनके मन नहीं होता उनके संज्ञा भी नहीं होती।
शंका-जो जीव मनवाले नहीं हैं आहार आदि की संज्ञा तो उनके भी पाई जाती है, इस लिये यह कहना नहीं बनता कि जिनके मन होता है उनके ही संज्ञा होती है ?
समाधान-यहाँ संज्ञा से आहार,भय, मैथुन और परिग्रहरूप वृत्ति नहीं ली है यह तो कमी अधिक एकेन्द्रिय आदि सब संसारी जीवों के पाई जाती है। किन्तु यहाँ संज्ञा से वह विचारधारा ली है जिससे जीव को हिताहित का विवेक और गुणदोष के विचार की स्फूर्ति मिलती है। इस प्रकार की संज्ञा मनवाले जीवों के ही पाई जाती है इसीलिये यहाँ संज्ञा और मनका साहचर्य सम्वन्ध बतलाया है।
शंका-हितकी प्राप्ति और अहित का त्याग तो चींटी आदि के भी देखा जाता है इस लिये मनवाले जीवों को ही संज्ञी कहना नहीं बनता? ___ समाधान-हित की प्राप्ति और अहित का त्याग केवल मनका कार्य नहीं । मनका कार्य तो विचार करना है जो चींटी आदि के नहीं