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२६४ तत्त्वार्थसूत्र
[५.३८, प्रकारान्तर से द्रव्य का स्वरूप----- गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ॥ ३८॥ गुण और पर्यायवाला द्रव्य होता है।
पहले द्रव्य का लक्षण बतला आये हैं। यहाँ प्रकारान्तर से उसका लक्षण बतलाया जाता है।
जिसमें गुण और पर्याय हो वह द्रव्य है। गुण अन्वयी होते हैं और पर्याय व्यतिरेकी । प्रत्येक द्रव्य में कार्यभेद से अनन्त शक्तियों का अनुमान होता है। इन्हीं की गुण संज्ञा है । ये अन्वयी स्वभाव होकर. भी सदा काल एक अवस्था में नहीं रहते हैं किन्तु प्रति समय बदलते रहते हैं । इनका बदलना ही पर्याय है। गुण अन्वयी होते हैं, इस कथन का यह तात्पर्य है कि शक्ति के मूल स्वभाव का कभी भी नाश नहीं होता । ज्ञान सदा काल ज्ञान बना रहता है। तथापि जो ज्ञान इस समय है वही ज्ञान दूसरे समय में नहीं रहता। दूसरे समय में वह अन्य प्रकार का हो जाता है। इससे मालूम पड़ता है कि प्रत्येक गुण अपनी धारा के भीतर रहते हुए भी प्रति समय अन्य अन्य अवस्थाओं को प्राप्त होता रहता है । गुणों की इन अवस्थाओं का नाम ही पर्याय है। इससे उन्हें व्यतीरेकी कहा है। वे प्रति समय अन्य अन्य होती रहती हैं। ये गुण और पर्याय मिलकर ही द्रव्य कहलाते हैं। द्रव्य इनके सिवा स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। ये दोनों उसके स्वरूप हैं । गुण
और पर्याय रूप से ही द्रव्य अनुभव में आता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। ___ पहले यद्यपि द्रव्य को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव बतला आये हैं और यहाँ उसे गुण पर्यायवाला बतलाया है पर विचार करने पर इन दोनों लक्षणों में कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता, क्योंकि जो वस्तु वहाँ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य शब्द द्वारा कही गई है वही यहाँ