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.८.२-३.] बन्ध का स्वरूप और उसके भेद किसी न किसी रूप में अवश्य पाया जाता है। यह कर्ममात्र के प्रकृति
और प्रदेशबन्ध का अनिवार्य कारण है। __ इन पाँचों बन्धहेतुओं में से पूर्व पूर्व के बन्धहेतु के रहने पर आगे आगे के बन्धहेतु नियम से पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ-मिथ्यात्व के रहने पर सब बन्धहेतु पाये जाते हैं और अविरति के रहने पर प्रभाद आदि तीन, प्रमाद के रहने पर कषाय आदि दो और कषाय के रहने पर योग अवश्य पाया जाता है। परन्तु आगे आगे के वन्धहेतु होने पर पूर्व पूर्व के बन्धहेतु होते भी हैं और नहीं भी होते । उदाहरणार्थअविरति के रहने पर मिथ्यात्व होता भी है और नहीं भी होता। यदि प्रथम द्वितीय और तृतीय गुणस्थान से सम्बन्ध रखनेवालो अविरति है तो मिथ्यात्व होता है अन्यथा नहीं होता। आगे भी इसी प्रकार जानना चाहिये।
यहाँ सासादन दृष्टि और मिश्रदृष्टि को मिथ्यात्व में ही सम्मिलित कर लिया गया है, क्योंकि ये प्रकारान्तर से मिथ्यात्व के ही अबान्तर भेद हैं। सम्यकत्व मार्गणा के छह भेदों में इसी कारण से इनकी परिगणना की गई है।॥१॥
बन्ध का स्वरूप और उसके भेदसकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्मान् पुद्गलानादचे स बन्धः ॥२॥
प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः॥३॥ कषाय सहित होने से जीव जो कर्मे के योग्य पुद्गजों को ग्रहण करता है वह बन्ध है। उसके प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेश ये चार प्रकार हैं ।
आगम में तेईस प्रकार को पुद्गल वर्गणाएं बतलाई हैं उनमें से कामण वर्गणाएँ हो कमरून परिणाम को प्राप्त करने को योग्यता रखती