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४१८ तत्त्वार्थसूत्र
[६.७. संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म का स्वाख्यातत्व इनका चिन्तवन करना अनुप्रेक्षाएँ हैं। __ अनुप्रेक्षा का अर्थ है पुनः पुनः चिन्तवन करना। जब यह प्राणी संसार और संसार की अनित्यता आदि के विषय में और साथ ही
आत्मशुद्धि के कारण भूत भिन्न-भिन्न साधनों के विषय में पुनः पुनः विचार करता है तो इससे इसकी संसार और संसार के कारणों के प्रति विरक्ति होकर धर्म के प्रति गहरी आस्था उत्पन्न होती है जिससे ये सब अनुप्रेक्षाएँ संवर का साधन बनती हैं, इसी से यहाँ इनका संवर के उपाय रूप से वर्णन किया गया है। अनुप्र क्षाओं को भावना भी कहते हैं। ये सब मिलकर बारह बतलाई गई हैं। इसका यह मतलब नहीं कि इनके सिवा अन्य के विषय में चिन्तवन नहीं किया जा सकता है। उपयोगानुसार न्यूनाधिक विषय भी चुने जा सकते हैं। किन्तु मध्यम प्रतिपत्ति से यहाँ बारह विषय चुने गये हैं। इनके चिन्तवन से जीवन का संशोधन करने में सहायता मिलती है और कर्मों का संवर होकर आत्मा मोक्ष का पात्र बनता है।
शरीर, इन्द्रिय, विषय और भोगोपभोग ये जितने हैं सब जल के बुलबुले के समान अनवस्थित स्वभाव और वियुक्त होनेवाले हैं। व्यर्थ
. ही अज्ञ प्राणी मोहवश इन्हें नित्य मान बैठा है आनत्यानका परन्तु आत्मा के ज्ञान दर्शन रूप स्वभाव को छोड़कर संसार में और कोई भी पदार्थ नित्य नहीं है। इस प्रकार चिन्तवन करना अनित्यानुप्रेक्षा है । ऐसा चिन्तवन करने से प्राप्य वस्तु के वियोग में दुःख नहीं होता। ___ इस जग में यह प्राणी जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधियों से घिरा हुआ है, यहाँ इसका कोई भी शरण नहीं है। भोजन शरीर की
स्थिति में चाहे जितनी सहायता करे पर दुःखों के अशरणाचप्रक्षा प्राप्त होने पर उसका कोई उपयोग नहीं होता। धन चाहे