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७. १७.] परिग्रह का स्वरूप
३३५ नहीं है तब फिर बाह्यलिंग को अन्तरंग परिणतिका निमित्त मानना कैसे उचित कहा जा सकता है ?
समाधान-यह तो है ही कि बाह्यलिंग बुद्धिपूर्वक स्वीकार किया जाता है, पर अन्तरंग की परिणति से उसका कुछ भी सम्बन्ध न हो यह नहीं कहा जा सकता है, फिर भी कोई वास्तविक परिणति के होने पर वैसा करते हैं और कोई उसके अभाव में भी केवल ढोंगवश वैसा करते हैं। इसलिये यह तो है कि बाह्यलिंग अन्तरंग परिणति के अभाव में भी हो जाता है पर यह नहीं है कि सकल बाह्य वस्तुओं के आलम्बन के त्याग की भावना तो हो और तदनुकूल प्रवृत्ति भी करने लगे पर बाह्य वस्तुओं का त्याग न करे, उन्हें पकड़े ही रहे अर्थात् उनमें ममकार और अहंकार भाव करता ही जाय ।
शंका-कोई साधु यदि वस्त्र, पात्र आदि को स्वेच्छा से स्वीकार करे तो एक बात है, पर वह ऐसा न करके शास्त्राज्ञा से उन्हें स्वीकार करता है इसलिये साधु उनमें ममकार और अहंकार भाव करता है. यह प्रश्न ही नहीं उठता ?
समाधान-शास्त्र तो वस्तु के स्वभाव का निर्देशमात्र करते हैं। उनमें भला ऐसा विधि विधान कैसे हो सकता है जिसका आत्मपरिणति से मेल नहीं बैठता, इसलिये शास्त्राज्ञा के नाम से जीवन में ऐसी कमजोरी लाना उचित नहीं है । __ शंका-तो फिर जिन शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है उन्हें कल्पित माना जाय ?
समाधान-यह कैसे कहा जा सकता है कि वे शास्त्र कल्पित हैं। पर इतना अवश्य है कि साधु को वस्त्र पात्र आदि रखने का निर्देश करनेवाले उल्लेख श्रमण परम्परा के प्रतिकूल हैं, अतः वे त्याज्य हैं। शंका-श्रमण भगवान महावीर के पूर्ववर्ती श्रमण जब कि पात्र २२