Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 495
________________ तत्त्वार्थसूत्र [ ६. ३०-३४ प्रिय वस्तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिये सतत चिन्ता करना दूसरा श्रार्तध्यान है । ४४० वेदना के होने पर उसके दूर करने के लिये सतत चिन्ता करना तीसरा ध्यान है | आगामी विषय की प्राप्ति के लिये निरन्तर चिन्ता करना चौथा ध्यान है । वह आध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत जीवों के होता है । पूर्वोक्त चार ध्यानों में से इनका विचार किया गया है। यहाँ आर्तध्यान के भेद और उनके स्वामी जैसा कि हम पहले लिख आये हैं कि ध्यान का मुख्य आधार पीड़ा है । वह पीड़ा अनिष्ट वस्तु का संयोग, इष्ट वस्तु का वियोग, प्रतिकूल वेदना और आगामी भोगाकांक्षा इन चार कारणों में से किसी एक के निमित्त से हुआ करती है इसलिये निमित्त भेद से इस ध्यान के चार भेद हो जाते हैं । १ जो वस्तु अपने को अप्रिय है उसका संयोग होने पर तज्जन्य पीड़ा से व्याकुल होकर उस वस्तु के वियोग के लिये सतत चिन्ता करना अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है । २ पुत्रादि इष्ट वस्तु का वियोग हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिये निरन्तर चिन्ता करते रहना इष्ट वियोग आर्तध्यान है । ३ शारीरिक व मानसिक किसी भी प्रकार की पीड़ा के होने पर उसके दूर करने के लिये सतत चिन्ता करते रहना वेदना नामक ध्यान है और ४ आगामी भोगों की प्राप्ति के लिये चिन्ता करते रहना निदान आर्तध्यान है । ये आर्तध्यान प्रारम्भ के छह गुणस्थानों तक हो सकते हैं । उसमें भी निदान ध्यान प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नहीं होता, क्योंकि भोगा कांक्षा को भावना होने पर सर्वविरति का त्याग हो जाता है || ३०-३४ ॥

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