Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 504
________________ ९. ४७] आठ बातों द्वारा निर्ग्रन्थों का बिशेष वर्णन ४४६ करते समय इसके दो भेद बतला आये हैं-बाह्य उपधि और आभ्यन्तर उपधि । बाह्य उपधि में क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवणे, धन, धान्य दासी, दास, कुप्य और भाएड ये दस आते हैं तथा आभ्यन्तर उपधि से मिथ्यात्व, क्रोधादि चार, हास्यादि छह और तीन वेद ये चौदह लिये जाते हैं। जिसने इन दोनों प्रकार की उपधियों का त्याग कर दिया है वह निग्रन्थ है। यहाँ इस निर्ग्रन्थ के तरतम रूप होनेवाले भावों की अपेक्षा पाँच भेद किये गये हैं जिनका स्वरूप नीचे लिखे अनुसार है १ जो उत्तर गुणों को उत्तमता से नहीं पालते किन्तु मूल गुणों में भी पूर्णता को नहीं प्राप्त हैं वे पुलाक निग्रन्थ हैं। पुलाक पयाल को कहते हैं। वह जैसे सारभाग रहित होता है वैसे ही उन निर्ग्रन्थों को जानना चाहिये। २ जो व्रतों को पूरी तरह पालते हैं किन्तु शरीर और उपकरणों को संस्कारित करते रहते हैं, ऋद्धि और यश की अभिलापा रखते हैं, परिवार से लिपटे रहते हैं और मोह नन्य दोप से युक्त हैं वे वकुश निर्ग्रन्थ हैं। ३ कुशील निर्ग्रन्थ दो प्रकार के हैं-प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील । जिनकी परिग्रह से आसक्ति नहीं घटी है, जो मूलगुणों और उत्तरगुणों को पालते हैं तो भी कदाचित् उत्तरगुणों को विराधना कर लेते हैं वे प्रतिसेवनाकुशील निर्ग्रन्थ हैं। जो अन्य कषायों पर विजय पा कर भी संज्वलन कषाय के आधीन हैं, वे कषायकुशील निर्ग्रन्थ हैं। ४ जिन्होंने रागद्वेष का अभाव कर दिया है और अन्तमुहूर्त में जो केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं वे निग्रन्थ निग्रन्थ हैं। ५ और जिन्होंने सर्वज्ञता को पा लिया है वे स्नातक निग्रन्थ हैं ।। ४६ ।। श्राठ बातों द्वारा निर्ग्रन्थों का विशेष वर्णन-- संयमश्रतप्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्या: ॥४७॥

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